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श्रीभवचनसार भाषार्टीका। [१५६ चाहिये कि जिसमें भूत भावी सर्व द्रव्योंकी पर्यायें वर्तमान में विना क्रमके एक साथ जानने में आवे यही ज्ञानका महात्म्य है । हां यदि ज्ञान अशुद्ध होगा तो उसके जाननेमें अवश्य कमी रहेगी । इसीसे मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्ययज्ञानका विषय बहुत कम है। केवलज्ञानमें कोई ज्ञानावरण नहीं रहा तब वह सर्व ज्ञेयोंको न नान सके यह बात कभी नहीं हो सकी। इसलिये वहां वर्तमान पर्यायोंके समान द्रव्योंकी भूत भावी पर्यायें भी प्रत्यक्ष हो रही हैं-केवलज्ञानकी अपूर्व शक्ति है। एक द्रव्यमें अनंत गुण हैं-हरएक गुणकी एकएक समयवर्ती एकएक पर्याय होती है । एक र गुणकी भूत भावी पर्यायें अनंतानंत हैं। तथा एक एक पर्यायमें शक्तिके अंश अनंत होते हैं। इन सर्वको विशेष रूप पृथक् पृथक् एक कालमें जान लेना फेवलज्ञानका कार्य है। यह महिमा निर्मलज्ञान ही में जानना चाहिये, क्षायिक ज्ञान ही ऐसा शक्तिशाली है। क्षयोपशमिक ज्ञानमें बहुत ही कम जाननेकी शक्ति है । केवलज्ञान सूर्य सम प्रकाशक है । ज्ञानकी पूर्ण महिमा इसी ज्ञानमें झलकती है। केवलज्ञानी अरहंत भगवान यद्यपि सर्वज्ञ हैं तथापि उनके उपयोगकी सन्मुखता निज शुद्धा. स्माकी ओर है । अपने शुद्ध आत्माके मुख समुद्रमें मग्न हो परमानन्दमें छक रहे हैं । इसी तरह भेद विज्ञानीका कर्तव्य है कि निश्चय तथा व्यवहार नयसे सम्पूर्ण पदार्थोंके यथार्थ स्वरूपको जानते हुए भी अपनी तन्मयता अपने शुद्ध आत्म स्वभावमें रखकर निजानन्दका अनुभव करके सुखी होवे ॥३९॥
उत्थानिका-आगे यह विचार करते हैं कि इद्रियों के