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१५६] श्रीप्रवचनसार भाषादीका । द्वारा जो ज्ञान होता है वह भूत और भावी पर्यायोंको तथा सूक्ष्म दूरवर्ती आदि पदार्थोको नहीं जानता है... अत्थं अक्खणिवदिदं, ईहापुव्वेहि जे.विजाणति । तेर्सि परोक्खंभूदं, णादुमसकति पणत्तं ॥४॥ , अर्थमक्षनिपतितमीहापूः ,ये विजानन्ति ! . . . . . .
तेषां परोक्षभूत ज्ञातुमशक्यमिति प्राप्तम् ॥४०॥..: . सामान्यार्थ-जो जीव इद्रियों के द्वारा ग्रहण योग्य पदाथोंको ईहा पूर्वक जानते हैं उनको जो उनके इंद्रिय ज्ञानसे परोक्षमृत वस्तु है सो जाननेके लिये अशक्य है ऐसा कहा गया है।
· अन्वय सहित विशेषार्थ-(जे.) नो कोई छद्मस्थ (भक्खणिवदिदं.) इन्द्रियगोचर (अट्ठ) पदार्थको (ईहापुनेहि) ईहापूर्वक (चिनाणति ) जानते हैं. (तेसि ) उनका .(परोक्समृदं) परोक्ष भूतज्ञान ( णादु) जाननेके लिये अर्थात . सुक्ष्म आदि पदार्थों को जानने के लिये (असक्कति) मशक्य है.ऐसा (पण्णत्त) कहा गया है। ज्ञानियोंके द्वारा अथवा उनके ज्ञानसे जो परोक्षभूत द्रव्य है.वह उनके द्वारा जाना नहीं जासका प्रयोजन यह है कि नैयायिकोंके मतमें चक्षु धादि इन्द्रिय घट पट आदि पदार्थोके पास जाकर फिर पदार्थको जानती हैं अथवा संक्षेपसे इन्द्रिय और पदार्थका सम्बन्ध सन्निकर्ष है वह ही प्रमाण है.। ऐसा सनिकर्ष ज्ञान भाकाश आदि अमूर्तीक पदार्थोमें, दूरवर्ती मेरु आदि पदार्थों में कालसे दूर राम रावणादिमें . स्वभावसे दूर भूत प्रेत मादिकोंमें तथा अति सूक्ष्म ,परके मनके वर्तनमें व पुद्गल परमाणु आदिकोंमें नहीं प्रवर्तन करसता । क्योंकि इन्द्रियोंका विषय स्थूल है तथा