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श्रीमवचनसार भाषाटीका 1.
है कि यदि वर्तमान पर्यायकी तरह भूत और भावी पर्यायको केवलज्ञान कमरूप इन्द्रियज्ञानके विधानसे रहित हो साक्षात् प्रत्यक्ष न करे तो वह ज्ञान दिव्य न होवे | वस्तु स्वरूपकी अपेक्षा विचार करें तो वह शुद्ध ज्ञान ही न होवे । जैसे यह केवली भगवान परद्रव्य व उसकी पर्यायोंको यद्यपि ज्ञानमात्रपसे जानते हैं तथापि निश्चय करके सहन ही आनंदमई एक स्वभावके धारी अपने शुद्ध आत्मा में तन्मई पनेसे ज्ञान क्रिया करते हैं तैसे निर्मल विवेकी मनुष्य भी यद्यपि व्यवहार से परद्रव्य व उसके गुण पर्यायका ज्ञान करते हैं तथापि निश्चयसे विकार रहित स्वसंवेदन पर्याय में अपना विषय रखनेसे उसी पर्यायका ही ज्ञान या अनुभव करते हैं यह सुत्रका तात्पर्य है ।
भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने पिछली बातको और भी दृढ़ कर दिया है। यदि ज्ञान गुणका स्वरूप देखें तो यही समझना होगा कि जो सर्व जानने योग्यको एक समयमें जाननेको समर्थ है वही ज्ञान है । ज्ञेय ज्ञानका विषय विषयी सम्बन्ध है । 1 ज्ञेय विषय हैं ज्ञान उनको जाननेवाला है। जिस पदार्थका जितना काम होना चाहिये उतना काम यदि करे तब तो उसे शुद्ध पदार्थ और यदि उतना काम न करके कम करे तो उसे अशुद्ध पदार्थ कहते हैं । एक आदर्श में सामनेके दस गज तकके पदार्थ प्रकाशने की शक्ति है । यदि वह दर्पण निर्मल होगा तो अपने पदार्थ प्रकाशके कार्यको पूर्णपने करेगा। हां यदि वह मलीन होगा तो उस दर्पण में प्रगट पदार्थोका दर्शाव साफ नहीं होगा । यही हाल ज्ञानका है। यदि वह शुद्ध ज्ञान होगा तो उसका स्वभाव ही ऐसा होना
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