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३६२] श्रीमवचनसार भापाटीका।
उत्थानिका-आगे ऐसे निश्रय रत्नत्रयमें परिणमन करनेवाले महा मुनिकी जो कोई भक्ति करता है उसके फलको दिखाते हैंजो तं दिहा तुहो अन्मुहित्ता करेदि सकारं। बंदणणमंसणादिहि तत्तो सो धम्ममादियदि ॥
यो तं दृष्ट्वा तुष्टः अभ्युस्थित्वा करोति सत्कार । वंदननमनादिभिः ततः सो धर्ममादत्ते ॥ १०० ॥
सामान्यार्थ-जो कोई ऐसे साधुको देखकर संतोपी होता हुआ उठकर वंदन नमस्कार मादिके द्वारा सत्कार करता है वह उस साधुके द्वारा धर्मको ग्रहण करता है। __ अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो तं दिट्ठा तुट्ठो) जो कोई भव्योंमें प्रधान वीतराग शुद्धात्माके अनुभवरूप निश्चय धर्ममें परिणमनेवाले पूर्व सूत्रमें कहे हुए मुनीश्वरको देखकर पूर्ण गुणों में अनुरागभावसे संतोषी होता हुआ (अन्मुट्टित्ता) उठकर (वंदणणमंसणादिहिं सक्कार करेदि) "तव सिद्धे णयसिद्ध" इत्यादि वंदना तथा " णमोस्तु " रूप नमस्कार इत्यादि भक्तिविशेषोंके द्वारा सत्कार या प्रशंसा करता है (सो तत्तो धम्ममादियदि) सो भव्य ' उस यतिवरके निमित्तसे पुण्यको प्राप्त करता है।
भावार्थ-द्रव्य और भाव लिंगधारी साधु ही यथार्थमें भक्ति करने के योग्य हैं। उनकी भक्तिमें भीतरसे जो प्रेमरूप मासक्ति होती है वही बाहरी भक्तिको वचन तथा कायके द्वारा प्रगट कराती है । उस शुभ भावके निमित्तसे महान पुण्यका काम