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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । ३६१. Hmmin
भोग करना चाहते हैं उनको प्रथम शास्त्रज्ञानसे तत्वार्थ शृद्धान . . 'प्राप्तकर निश्चय क्षायिक सम्यक्त प्राप्त करना चाहिये, फिर आंग-, • मके अधिक अभ्याससे ज्ञान वैराग्यको बढ़ाते हुए व्यवहार चारि-',
के द्वारा वीतराग चारित्रको लाधन करना चाहिये। यही साक्षात मोक्षमार्ग है । यही रत्नत्रयकी एंकता है तथा यही स्वात्मानुभव है व यही निर्विकल्प ध्यान है । यही परिणाम. कर्मकाण्टके भस्म करनेको अग्निके समान है। ... ! - श्री योगेन्द्रदेवने. अमृताशीतिमें कहा है। हगवगमनवृत्तस्वस्वरूपप्रवि ' ::
व्रजति जलंधिकल्प ब्रह्मगम्भीरभाव । लमपि मुनयमत्वान्मद्वचस्सारमास्मिन् ।', .... :: :भवात भव. भवान्तस्थायिधामाधिपरत्वम् ॥ ६३ ॥ .. यदि चलति कथाञ्चिन्मानसं स्वस्वरुपाद:. :: ..
. भ्रमति बहिरंतस्ते सर्वदोषप्रसंशाः । ... ... ..... सदनवरतमन्तमग्नसंविग्नचिंचों।".. . भव भवास भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम् ॥ ६४॥
भावार्थ-दर्शन ज्ञान चारित्रमई अपने स्वरूपमें प्रवेश किया हुआ यह 'आत्मा. समुद्र समान ब्रह्मके गंभीर भावमें, चला
नाता है। तु भी मेरे सार 'वचनको अच्छी तरह मानकर 'यदि चले तो तू संसारकी अंतकर मोक्षधामका स्वामी हो जावे.
यदि कहीं अपने निज स्वरूपसे "मन चल जाय तो बाहर ही 'धूमता है, जिससे सर्व दोषोंका प्रसंग आता है । इससे निरंतर अंतरेंगमें मग्नचित्त होता हुआ तू सिद्धधामका "पंति होना ॥९९ ।।