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श्रीभवचनसार भाषाटीका। [२०७ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm तस्स णमाइं लोगो, देवासुरमणुअरायसंबंधो।। भत्तो करेदि णिचं, अवजुत्तो तं तहावि अहं ॥२॥
तस्य नमस्यां लोकः देवासुग्मणुष्यराजसम्बन्धः। . : भक्तः करोति नित्यं उपयुक्तः तं तथा हि अहं ॥५२॥
सामान्यार्थ-जैसे देव, अनुर, मनुष्योंके राजाओंसे सम्बंधित यह भक्त जगत उधगवंत होकर सस सर्वज्ञ भगवानको नित्य नमस्कार करता है तैसे ही मैं उनको नमस्कार करता हूं।
___ अन्श्य सहित विशेषार्थ-जैसे ( देवासुरमणुअ. राय सम्बंधो ) यवासी, मवत्रिक तथा मनुष्यों के इन्द्रोंकर सहित (भत्तो) भक्तवंत (उबजुत्तो) तथा उद्यमवंत ( लोगो ) यह लोक ( तस्स णमाई ) उस सर्वज्ञको नमस्कार । णिचं ) सदा (रेदि ) करता है ( तहावि से ही ( अहं) मैं ग्रन्थकर्ता श्रीकुदकुंदाचार्य (२) उस सजको नमस्कार करता हूं। भाव यह है कि मेरे देवेन्द्र व चक्र ती गादिक अनन्त और लक्षण मुख
आदि गुणोंके स्थान सर्वज्ञके स्वरूपको नमस्कार करते हैं जैसे में भी उस पदका अभिलापो होकर परम भक्तिले नमस्कार करता हूं। ____भावार्थ:-हम अल्पानी बंध करनेवाले जीवोंके लिये वही आत्मा मादशे हो सकता है नो सर्वज्ञ हो और वीतरागताके कारण अबंधक हो उनको अन्त तथा सिद्ध कहते हैं। उनहीमें भक्ति व उनकी पूजा व उनहींको नमस्कार । जगतमें भी बड़े २ पुरुष हैं जैसे इन्द्र चक्रवर्ती गादि वे बड़े भावसे व अनेक प्रकार उद्यम करके करते रहते हैं उनकी साक्ष तू पूजा करनेको विदेह