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२०८ श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। क्षेत्रोंमें स्थित उनके समवशरणमें जाते हैं। तथा अनेक अकृत्रिम तथा कृत्रिम चैत्यालयोंमें उनके मनोज्ञ वीतरागमय बिम्बोंकी भक्ति करते हैं क्योंकि आदर्श स्वभावमें विनय तथा प्रेम भक्त पुरुषके भावको दोष रहित तथा गुण विकाशी निर्मल करनेवाला है इसीसे श्रीआचार्य कुंदकुंद भगवान कहते हैं कि मैं भी ऐसे ही सर्वज्ञ भगवानकी वारम्वार भक्ति करके तथा उद्यम करके नमस्कार करता ई-क्योंकि जैसे गणधरादि मुनि, देवेंद्र तथा सम्यक्ती चक्रवर्ती आदि उस भादर्श रूप सर्वज्ञपदके अभिलाषी हैं वसे मैं भी उस पदका अभिलाषी हूं। इसीसे ऐसे ही आदर्श रूपको नमन व उसमा स्मरण करता हूं। ऐसा ही हम सर्व परमसुख चाहनेवालों. को करना योग्य है। यहां आचार्यने यह भी समझा दिया है कि मोक्षार्थीको ऐसे ही देवको देव मानकर पूजना तथा वन्दना चाहिये। रागद्वेष सहित तथा अल्पज्ञानीको कमी भी देव मानकर पूजना न चाहिये।
इस तरह आठ स्थलों के द्वारा वचीस गाथाओंसे और उसके पीछे एक नमस्कार गाथा ऐसे तेतीस गाथाओंसे ज्ञानप्रपंच नामका तीसरा अंतर अधिकार पूर्ण हुमा । भागे सुखप्रपंच नामके अधिकारमें अठारह गाथाएं हैं जिसमें पांच स्थल हैं उनमें से प्रथम स्थलमें " अत्थि ममुत्तं ॥ इत्यादि अधिकार गाथा सूत्र एक है उसके पीछे अतीन्द्रिय ज्ञानकी मुख्यतासे 'ज पेच्छदो इत्यादि सुत्र एक है। फिर इंद्रियनित ज्ञानकी मुख्यतासे 'जीवों स्वयं अभुत्तो, इत्यादि गाथाएं चार हैं फिर अभेद नयसे केवलज्ञान ही सुख है ऐसा कहते हुए गाथाएं ४ हैं। फिर इंद्रिय सुखको कथन करते