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१४० - श्रीमवचनसार भापाटीका । किसी ज्ञानके द्वारा ज्ञानी नहीं होता है अर्थात् ज्ञान और मात्माका सर्वथा भेद नहीं है किसी अपेक्षा भेद है । वास्तवमें ज्ञान और आत्मा अभिन्न हैं। जो जाणदि सोणाणं,ण हवदिणाणेण जाणगो आदा। 'णाणं परिणमदि संयं अहाणाणडिया सव्ये ॥३५॥
यो जानाति त ज्ञानं न भवति शानेन जायक आत्मा। ..." ज्ञानं परिणमते स्वयमा ज्ञानस्थिताः सर्वे ॥ ३६ ॥
सामान्यार्थ-जो जानता है सो ज्ञान है । आत्मा मिन्न ज्ञानके द्वारा ज्ञायक नहीं है । आत्माका ज्ञान आप ही परिणमन करता है और सब ज्ञेय पदार्थ ज्ञानमें स्थित हैं।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो जाणदि ) जो कोई जानता है (सो णाण) सो ज्ञान गुण है अथवा ज्ञानी यात्मा है। जैसे संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदिके कारण अग्नि और उसके उष्ण गुणका भेद होनेपर भी अभेद नयसे जलाने की क्रियाको करनेको समर्थ उष्ण गुणके द्वारा परिणमतीहुई अग्नि भी उण कही जाती है । वैसे संज्ञा लक्षणादिके द्वारा ज्ञान और आत्माका भेद होनेपर भी पदार्थ और क्रियाको जाननेको समर्थ ज्ञान गुणके द्वारा परिणमन करता हुआ पात्मा भी ज्ञान या ज्ञानरूप कहा जाता है ऐसा ही कहागया है। "जानातीति ज्ञानमात्मा' कि जो जानता है सो ज्ञान है और सो ही आत्मा है । (बादा) आत्मा ( णाणेण ) मिन्न ज्ञानके कारणसे ( जाणगो ) जाननेवाला ज्ञाता (ण हवृदि) नहीं होता है। किसीका ऐसा मत है कि जैसे मिन्न