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श्रीप्रवचनसार भाषांटीका ।
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अनुभवता है उसको निश्वयसे श्रुतकेवली कहा है । आचार्य महाराजने समयसारनीमें भी यही बात कही है
जो हि सुदेण भिगच्छदि अप्पाणमिणतु केवलं सुद्धं । तं सुदकेवलिमिसिणो भणति लोकप्पदीवयरा ॥ जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवली तमाहु जिणा । सुदणाणमाद सच्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा ||
भाव यह है कि जो श्रुतज्ञानके द्वारा अपने इस आत्माको असहाय और शुद्ध अनुभव करता है उसको जिनेन्द्रोंने श्रुतकेवली कहा है यह निश्चय नयसे है तथा जो सर्व श्रुतज्ञानको जानता है उसको जिनेन्द्रोंने व्यवहार नयसे श्रुतकेवली कहा है । क्योंकिसर्व श्रुतज्ञान आत्मा ही है इस लिये आत्मा ही आत्माका ज्ञाता ही श्रुतकेबली है।
आत्मा निश्वयसे शुद्धबुद्ध एक स्वभाव है उसीको कर्मकी उपाधिकी अपेक्षा व्यवहार नयसे नर, नारक, देव, तिर्थच कहते हैं वैसे ही ज्ञान एक है उसको व्यवहारसे आवरणकी उपाधिके वशसे अनेक ज्ञान कहते हैं । प्रयोजन कहने का यह है कि आत्माका जानपना ही भावश्रुत है और वह केवलज्ञानके समान आत्माको जाननेवाला है इसलिये सर्व विकल्प छोड़कर निश्चित हो एक नि आत्माको जानकर उसीका ही अनुभव करना योग्य है । इसीसे ही साम्यभाव रूप शुद्धोपयोग प्रगट होगा जो साक्षात् केवलज्ञानका कारण है ॥ ३४ ॥
उत्थानका- आगे कहते हैं कि आत्मा अपने से भिन्न