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१३८] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । - यसे उस ज्ञानमें भेद नहीं है । जैसे सूर्यका प्रकाश एकरूप है वैसे भात्माके ज्ञानका प्रकाश एकरूप है। परन्तु जैसे सूर्यके प्रकाशके रोकनेवाले बादल कम व अधिक होनेसे प्रकाश अनेक रूप कम व अधिक प्रगट होता है बसे ज्ञानावरणीय क्रमका आवरण ज्ञानको रोकता है। वह कर्म जितना क्षयोपशमरूप होता है उतना ही ज्ञान प्रगट होता है। कर्मके क्षयोपशम नानारूप हैं इसीसे वह प्रगट ज्ञान भी नानारूप है। स्यूजपने उस जानकी कम व अधिक प्रगटताके कारण ज्ञानके पांच भेद कहे, गए हैंमति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल । इनमें मति और श्रुत दो ज्ञान परोक्ष हैं-इन्द्रिय और मनके व बाह्य पदार्थोके आलम्बनसे: प्रगट होते हैं । शास्त्रज्ञान रूप जो भावभुतज्ञान है वह भी द्रव्य श्रुतरूप द्वादशांग वाणीके आधारसे प्रगट होता है। द्वादशांग वाणी पुद्गलमई वचनरूप है तथा उसका माधार केवलज्ञानीकी दिव्यध्वनि है वह भी पुद्गलमई अनक्षरात्मक वाणी है। इस कारणसे निश्चयसे यह द्रव्यश्चत श्रुतज्ञान नहीं है किन्तु द्रव्यश्नुतके द्वारा जो जानने व अनुभवनेमें जाता है ऐसा भावश्रुत सो ही श्रुतज्ञान है और वह आत्माका ही स्वभाव है-अथवा आत्माके स्वभावका ही एक देश झलझाव है। इस कारण उसको एक ज्ञान ही कहना योग्य है । इस ज्ञानके श्रुतज्ञानकी उपाधि निमित्तवश है। वास्तवमें ज्ञान के श्रुतज्ञान आदिकी उपाधि नहीं है। यही कारण है मिससे द्रव्यश्चुतको उपचारसे या व्यवहारसे श्रुतज्ञान कहा है। तथा जो इन्पश्चतरूप द्वादशांग वाणीको जानता है उसको व्यवहारसे श्रुतकेवली और जो भाववैवरूप आत्माको जानता तथा