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३१६] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका।
भावार्थ-मिथ्यात्व अधरेके चले जानेसे सम्यग्दर्शनकी 'प्राप्ति होनेपर तथा साथ ही सम्यग्ज्ञानका लाभ हो जानेपर साधु रागद्वेषोंको हटानेके लिये चारित्रको पालते हैं। इस गाथामें श्री कुन्दकुन्द भगवानने दिखा दिया है कि केवल आत्माकी शृद्धा व आत्माके ज्ञानसे ही मोक्ष नहीं होगी। जबतक रागद्वेषको त्यागकर शुद्धात्माके वीतराग स्वभावका अनुभव करके चारित्र मोहनीयको नाश न किया जायगा तबतक शुद्ध मात्माका लामरूप -मोक्ष नहीं हो सका है। मोक्षके चाहनेवाले जीवको पहले तो
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति करनी चाहिये । इसके लिये 'श्री अरहत भगवान के द्रव्य गुण पर्यायोंको जानकर उसी समान
अपने आत्माको निश्चय करके पुनः पुनः परहंत भक्ति और आत्म. -मनन करना चाहिये जिससे दर्शन मोहनीय कर्म और उसके सहकारी
अनंतानुबंधी कषायका उपशम हो जावे. क्योंकि विना इनके दवे 'किसी भी जीवको सम्यग्दर्शनका लाभ नहीं होता है। जब तत्त्व विचारके अभ्याससे सम्यक्त मिल जावे तब सम्यग्चारित्र और सम्यग्ज्ञानकी पूर्णता के लिये प्रमाद त्यागकर पुरुषार्थ करनेकी जरूरत है। क्योंकि संसारके पदार्थ हेय हैं, निज स्वभाव उपादेय है ऐसा जाननेपर भी जबतक संसारके पदार्थोंसे रागद्वेष.न छोड़ा नायगा तबतक वीतराग भावका अनुभव न होगा और विना वीतराग भावका ध्यान हुए चारित्र मोहनीय कर्मका नाश नहीं होगा । जब इस कर्मका नाश होजायगा तब यथाल्यातचारित्र प्राप्त होगा उसीके पीछे अन्य तीन घातिया फर्मोका नाश होगा और केवलज्ञान केवलदर्शन और अनंत वीर्यकी प्राप्ति हो जायगी।