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श्रीभवचनसार भाषाटीका। [३१७ इसी उपायसे शुद्ध परमात्मा हो जायगा। यदि स्वरूपके अभ्यासमें प्रमाद करेगा तो सम्भव है कि उपशम सम्यक्तमे गिरकर मिथ्यादृष्टी हो जावे । परन्तु यदि विषय कषायोंसे सावधान रहेगा और आत्मरसका स्वाद लेता रहेगा तो उपशमसे क्षयोपशम फिर क्षायिक सम्यग्दृष्टी होकर चारित्र पर आरूढ़ होकर शुद्ध
मात्मा प्रत्यक्ष लाभ कर लेगा। तात्पर्य यह है कि अपने हितमें चतुर पुरुषको सदा जागते रहना चाहिये । जो ज्ञान शृद्धा. नके पीछे चारित्रको न पालकर शुद्ध होना चाहते हैं उनके लिये श्री देवसेनाचार्यने तत्वसारमें ऐसा कहा है:-- चलणरहिओ मणुस्सो जह बंछइ मेरुसिहरभाराहि । तह झाणेण विहीणो इच्छइ कम्मक्खयं साहू ॥ १३ ॥
भावार्थ-जैसे कोई मेरु शिषर पर चढ़ना चाहे परन्तु चले नहीं, बैठा रहे तो वह कभी मेरुके शिपर पर नहीं पहुंच सक्ता है। इसी तरह जो कोई आत्मध्यान न करे और कोका क्षय चाहे तो वह साधु कभी भी कर्मोका नाशकर मोक्ष नहीं प्राप्त कर सक्ता है । तात्पर्य यह है कि जबतक सर्वज्ञ वीतराग भवस्थामें न पहुंचे तबतक निरन्तर आत्मस्वरूपका मननफर शुद्धोपयोगकी भावनामें लीन रहना चाहिये ॥ ८७॥
उत्थानिका-आगे आचार्य अपने मनमें यह निश्चय करके वैसा ही कहते हैं कि पहले द्रव्य गुण पर्यायोंके द्वारा आत भरहंतके स्वरूपको जानकर पीछे उसी रूप अपने आत्मामें ठहरकर सर्व ही अहंत हुए और मोक्ष गए हैं