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श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
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हदि ) यदि शुद्धात्मा अनुभवरूपी लक्षणको धरनेवाले वीसराग चारित्र के बाघक चारित्र मोहरूपी रागद्वेषोंको छोड़ देता है ( सो सुद्धं मप्पाणं लहदि ) तब वह निश्चय अभेद रत्नत्रयमें परिणमन गरनेवाला आत्मा शुद्ध बुद्ध एक स्वभावरूप आत्माको प्राप्त कर लेता है अर्थात मुक्त होनाता है । पूर्वं ज्ञानकंठिका में "उपभोग विसुद्धो सो खवेदि देहुन्भवं दुक्खं " ऐसा कहा था यहां " जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं " ऐसा कहा है। दोनों ही एक मोक्षकी बात है इनमें विशेष क्या है । इस प्रश्नके उत्तर में कहते हैं कि यहां तो शुभ या अशुभ उपयोगको निश्वयसे समान जानकर फिर शुभसे रहित सुद्धोपयोगरूप निज आत्मवरूपमें ठहरकर मोक्ष पाता है इस कारणसे शुभ अशुभ सम्बन्धी सुटता हटानेके लिये ज्ञानकंठिताको कहा है। यहां तो द्रव्य, गुण, पर्यायोंके द्वारा आप्त परहंत के स्वरूपको जानकर पोछे वपने गुरु आत्मा के स्वरूप में ठारकर मोक्ष प्राप्त करता है। इस कारण से यहां आप्त और कंठिकाको कहा है इतना ही विशेष है ।
भावार्थ - इस गाथा में आचार्यने स्पष्ट रूपसे चारित्रको आवश्यकाको बता दिया है तथा यही भाव झलकाया है जिसको स्वामी समन्तभद्राचार्यने अपने रत्नकरण्ड श्रावकाचारके इस श्लोक में दिखलाया है । (नोट- यह आचार्य श्री कुन्दकुन्दके पीछेहुए हैं ) ।
कोक- मोदतिथिरापहरणे दर्शनला भादवाप्तसंज्ञानः । रागद्वेपरिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥ ४७ ॥