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भूमिका
यह श्री प्रवचनसार अन्य जनागमका सार है। इसमें तत्वज्ञान और चारित्रका तत्वरसगर्मित विवेचन है। इसमें तीन अधिकार हैं-ज्ञानतत्त्व, “ज्ञेयतत्व और चारित्र. जिनमें से इस खंडमें ज्ञानतत्व प्रतिपादक खण्डका -उल्था • विस्तारपूर्वक इसीलिये किया गया है कि भाषाके नाननेवाले सुगमतासे इसके भावको जान सकें। इसके मूलकर्ता श्री. कुंदकुंदाचार्य है जिन्होंने प्राकृत गाथाएं रची हैं । इसपर दो संस्कृत टीकाएं मिलती हैं-एक श्री अमृतचंद्राचार्य कृत, दुसरी श्री जयसेनाचार्यकृत । पहलेको टीकाके भावको आगरा निवासी पं० हेमराजनीने प्रगट किया है जो मुद्रित होचुका है, परन्तु जयसेनछत वृत्तिका हिंदी उल्था अबतक कहीं जानने में नहीं भाया था। तब जय नाचायके भावको प्रगट करने के लिये हमने विद्यावल न होते हुए भी इसका हिंदी उल्था किया है सो पाठकगण ध्यानसे पढ़ें । तथा महां कहीं भ्रम मालूम पड़े मूल प्रति देखकर शुद्ध करलें । हमने अपनी बुद्धिसे प्रत्येक गाथाका अन्वय भी कर दिया है.नि से पढ़नेवालोंको शनोंके अर्थका बोध होनावे । वृत्तिकारके अनुसार विशेष अर्थ देकर फिर हमारी समझनें जो गाथाका भाव माया उसे भावार्थमें खोल दिया है।
श्री कुंदकुंदाचार्यका समय विक्रम सं० १९ है ऐसा ही