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दि. जैन पट्टावलियोंसे प्रगट है तथा इनके शिष्य श्री तत्वासत्रके कर्ता श्रीमदुमास्वामी महाराज थे, जिनका समय विक्रम सं०है। उनकी मान्यता जैन संघमें श्री गौतमस्वामी तथा श्री महावीरस्वामी के तुल्य है इसीसे हर ग्राममें मन नैन शास्त्र सभा होती है तब भारम्भमें यह श्लोक पढ़ा जाता है
मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गोतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दाचार्यो, जैनधर्मोस्तु मंगलं ॥
श्री पंचास्तिकाय, समयसार, नियमसार, षट्पाहुइ, स्यणसार, द्वादशानुप्रेक्षा आदि कई ग्रंथोंके कर्ता श्री कुंदकुंाचार्थनी हैं। श्री जयसेनाचार्यका समय श्री अमृतचन्द्र पीछे मालूम होता है। श्री अमृतचन्द्रका समय दशवीं शताब्दी है। इसके लगभग श्री जयसेनाचार्यका समय होगा। यह टोका शव्दवोष समझानेके लिये बहुत सरल है। पाठकगणोंसे निवेदन है कि वे इस पुस्तकको अच्छी तरह पढ़कर हमारे परिश्रमको सफल करें। तथा अन्धका प्रचार शास्त्रसमा द्वारा व्याख्यान करके करते रहें।
भाषाढ वदी १२ ता. १०-७-२३)
जैनधर्मका प्रेमी७० सीतलप्रसाद ।