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श्रीमवचनसार भापाटीका ।
ये सुखदाई तथा दुःखदाईं भासते हैं । यही स्त्री जब हमारी इच्छानुसार वर्तती है तब इष्ट व सुखदाई भासती है, जब इच्छा विरुद्ध वर्तन करती है तत्र अनिष्ट या दुखदाई भारती, है । आज्ञाकारी पुत्र इष्ट व दुर्गुणी पुत्र दुखदायी भासता है इत्यादि । ऐसा जानकर इन्द्रिय सुखका भी उपादान कारण हमारा ही अशुद्ध आत्मा है, पर पदार्थ निमित्त मात्र हैं ऐसा जानना, क्योंकि सुख आत्माका गुण है इसीसे शरीर रहित सिद्धोंके अनंत मतींद्रिय मानन्द सदा विद्यमान रहता है ॥ ६७ ॥
उस्थानिका - अब आगे यहां कोई शंका करता है कि -मनुष्यका शरीर जिसके नहीं है किन्तु देवका दिव्य शरीर जिसको प्राप्त है वह शरीर तो उसके लिये अवश्य सुखका कारण होगा । आचार्य इस शंकाको हटाते हुए समाधान करते हैं:एते हि देहो, सुहं ण देहिस्स कुणइ सग्गे वा । वियवसेण तु सोक्खं, दुक्खं वा हवदि
सयमादा ||६| एकान्तेन हि देहः सुखं न देहिनः करोति स्वर्गे वा । विषययज्ञेन तु सौख्यं दुःखं वा भवति स्वयमात्मा ॥ ६८ ॥ सामान्यार्थ - भव तरह से यह निश्चय है कि संसारी प्राणीको यह शरीर स्वर्ग में भी सुख नहीं करता है। यह आत्मा आप ही इन्द्रियोंके विषयोंके आधीन होकर सुख या दुःखरूप होजाता है ।
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( एगंतेण हि ) सब तरइसे निश्चयकर यह प्रगट हैं कि ( देहिस्स ) शरीरधारी संसारी