________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [२५३ 'प्राणीको (देहो ) यह शरीर ( सग्गे वा) स्वर्गमें भी ( सुह ण कुणई ) सुख नहीं करता है । मनुष्योंकी मनुष्य देह तो सुखका कारण नहीं है यह बात दूर ही विष्ठे । स्वर्गमें भी को देवोंका मनोज्ञ वैक्रयिक देह है वह भी विषयवासनाके उपाय विना सुख नहीं करता है । ( आदा ) यह आत्मा ( सयं) अपने आप ही (विसयवसेण) विषयोंके वशसे अर्थात निश्चयसे विषयोंसे रहित अमूर्त स्वाभाविक सदा मानन्दमई एक स्वभावरूप होनेपर मी व्यवहारसे अनादि कर्मके वंधके वशसे विषयोंके भोगोंके माधीन होनेसे ( सोक्खं वा दुक्ख हवदि ) सुख व दुःखरूप परिणमन करके सुख या दुःखरूप होजाता है | शरीर सुख या दुःखरूप नहीं होता है यह अभिप्राय है।
भावार्थ-इस गाथामें भी भाचार्यने शरीरको जड़रूप होनेसे शरीर सुख या दुःखरूप होता है इस बातका निषेध किया है तथा वतलाया है कि देवोंके यद्यपि धातु उपधातु रहित नानारूपोंको बदलनेवाला वैक्रियिक परम क्रांतिमय नित्य मुखप्यास निद्राको बाधा रहित शरीर होता है तथापि देवोंके सुख या दुःख उनकी अनादि कालसे चली आई हुई विषयवासनाके आधीनप. नेसे ही होता है । इंद्रियोंके विषयभोगनेसे सुख होगा इस वातनासे कषायके उदयसे भोगकी तृष्णाको शमन करनेके लिये असमर्थ होकर मनोज्ञ देवी आदिकोंमें वे देव रमण करते हैं । उनके नृत्य गानादि सुनते हैं जिससे क्षणभरके लिये आकुलता मेटनेसे सुख कल्पना कर लेते हैं । यदि किसी देवीका मरण होजाता है तो उस देवीको न पाकर उसके द्वारा भोग न कर सकने के कारण