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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
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सुखका भान नहीं होता है। जैसे सम्यग्दृष्टी ज्ञानी आत्माके स्वामानुभवके द्वारा सच्चे अतीन्द्रिय सुखके भोगनेकी योग्यता हो नाती है । यदि उसका उपयोग निज आत्माके भाव में परसे मोह रागद्वेष त्याग ठहर जाता है तब ही स्वात्मानुभव होता हुआ निजानन्दका स्वाद आता हैं | बिना उपयोगके कुछ काल विश्नाम पाए निम सुखका स्वाद भी नहीं आसक्ता है । इसलिये यहां आचा
यह सिद्ध किया है कि सुख अपने आत्मामें ही है । आत्मामें यदि सुख गुण न होता तो संसारी आत्माको भी जो इंद्रिय सुख व काल्पनिक सुख कहा जाता है सो भी प्राप्त नहीं होता । क्योंकि इंद्रियोंके द्वारा होनेवाला सुख मशुद्ध है, पराधीन है, मोह व रागको बढ़ानेवाला है, अतृप्तिकारी है तथा कर्मबंधका बीज है इसलिये उपादेय नहीं है । परन्तु शुद्ध आत्माके स्वाधीन शुद्ध सुख है जो वीतरागमयी है, बंधकारक नहीं है व तृप्तिदायक है इसलिये उपादेय है । ऐसा जानकर क्षणिक व अशुद्ध तथा पराधीन सुखकी लालसा छोड़कर निभाधीन अनंत अतींद्रिय सुखको भोगनेके लिये आत्मा को मुक्त करना चाहिये और इसी कर्मसे छुटकारा पाने के उपाय में हमको साम्यभावका आलम्बन करके निन सुखका स्वाद पानेका पुरुषार्थ करना चाहिये यही निजानंद पूर्ण आनन्दकी प्रगटताका बीज है । इस कथनसे आचार्यने यह भी बता दिया है कि सुख अपने भावोंमें ही होता है शरीरादि कोई बाहरी पदार्थ सुखदाई नहीं हैं इसलिये हमें अपनी इस मिथ्याबुद्धिको भी त्याग देना चाहिये कि यह शरीर, पुत्र, मित्र, स्त्री, घन, भोजन तथा वस्त्र सुखदाई हैं। हमारी ही कल्पनासे
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