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२५० ] ' श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । वे भोगनेमें नहीं आए तो आकुलता हीमें फंसा रहता है। यदि कदाचित वे अहणमें आगए तो अपने रागभावके कारण यह बुद्धि करलेता है कि मैं सुखी भया-इस कारण इन्द्रियों के द्वारा भी जो सुख होता है वह आत्मामें ही होता है। इस सुखको यदि निश्चय सुख गुणका विपरीत परिणमन कहें तौभी कोई दोष नहीं है । जैसे मिथ्यादृष्टीके सम्यक्त भावका मिथ्यातरूप परिगमन होता है इसलिये शृद्धान तो होता है परन्तु विपरीत पदा. थोंमें होता है। तब. ही उसको मिथ्या या झूठा श्रुखान कहते हैं। इसी तरह स्वात्मानुभवसे शून्य रागभावमें परिणमन करते हुए जीवके जो परके द्वारा सुख अनुमवमें माता है वह मुख गुणका विपरीत परिणमन है। अर्थात् अशुद्ध रागी आत्मामें अशुद्ध राग रूप मलीन सुखका स्वाद भाता है। इस अशुद्ध, सुखके स्वाद आने कारण रागरूप कषायका उदय है । वास्तवमें मोही जीव जिस समय किसी पदार्थका इंद्रिय द्वारा भोग करता है उस समय वह रागरूप परिणमन कर जाता है अर्थात वह रागभावका भोग करता है। वह रागभाव चारित्रगुणका विपरीत परिणमन है-उसीके साथ साथ सुख गुणका भी विपरीत स्वाद आता है । वास्तवमें स्वाद उसी समय आता है जब उपयोग कुछ काल विनाम पाता है इंद्रियोंके द्वारा भोग करने में उपयोग अवश्य कुछ कालके लिये किसी मनोज्ञ विषयके आश्रित रामभावमें ठहर जाता है तब आत्माको मुख गुणकी अशुद्धताका स्वाद माता है। यदि उपयोग राग संयुक्त रहता हुआ मति चंचल होता है ठहरता नहीं तो उस चंचल आत्माके भीतर रागभाव होते हुए भी अशुद्ध