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श्रीप्रवचनसार भापाटीका ।
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किन्तु अविनाशी रूपसे अपने आत्मामें तिष्टनेसे होगा । क्योंकि भोगोंसे तृष्णाकी वृद्धि हो जाती है, ताप मिटता नहीं है । प्रयोजन यह है कि इन्द्रियसुख उल्टा दुःखरूप ही है। खान खुजानेले खानका रोग बढ़ता ही है। वैसे ही इन्द्रियोंके भोगोंसे चाहनाका रोग बढ़ता ही है - इसका उपाय आत्मानुभव है । आत्मानंदके द्वारा जो शांतरस व्यापता है वही रस चाहकी दाहको मेट देता है । और धीरेर ऐसा मेट देता है कि फिर कभी चाकी दाहका रोग पैदा नहीं होता है ऐसा जान साम्यभावरूप शुद्धोपयोगका ही मनन करना योग्य है ।
इस प्रकार निश्चय से इन्द्रभनित सुख दुःखरूप ही है ऐसा स्थापन करते हुए दो गाथाएं पूर्ण हुई ॥ ६१ ॥
उत्थानका - मागे यह प्रगट करते हैं कि मुक्त आत्मामोंके शरीर न होते हुए भी सुख रहता है इस कारण शरीर सुखका कारण नहीं है ।
पच्या इडे विलये फासेहिं समस्लिदे सहावेण । परिणममाणो अप्पा यमेव सुहं ण हवदि देहो ॥ ६७
प्राप्येष्ठान् विषयान् सः समाश्रितान् स्वभावेन ।
परिणममान आत्मा स्वयमेव सुखं न भवति देहः ॥ ६७ ॥ सामान्यार्थ - - यह आत्मा स्पर्श आदि इंद्रियों के आश्रय से, ग्रहण करने योग्य मनोज्ञ विषयभोगोंको पाकर या ग्रहणकर अपने अशुद्ध स्वभावसे परिणमन करता हुआ स्वयं ही सुखरूप हो नाता है । शरीर सुखरूप नहीं है ।,