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श्रीप्रवचनसार भापाटीका। [२४७ ही धीरे धीरे होता है । विषयभोगसे कभी भी यह रोग मिटता नहीं । स्वामी संमतभद्राचार्य ने स्वयंभूस्तोत्रमें बहुत ही यथार्थ वर्णन किया है जैसे:शतहदोन्मेपचलं हि सौख्यं तृष्णा मयाप्यायनमानहेतुः । तृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजसं, तापस्तदायासयतीत्यवादी॥१३
भावार्थ-इंद्रियोंका सुख विनलीके चमत्कारके समान अथिर है । शीघ्र ही होकर नष्ट होजाता है तथा इस सुखसे तृष्णारूपी रोग मिटनेकी अपेक्षा और अधिक बढ़ जाता है । मात्र इतना ही बुरा अधिक होता है लाभ कुछ नहीं । तृष्णाकी वृद्धि निरंतर प्राणीको संवापित या दाहयुक्त करती रहती है। वह चाहका दाहरूपी ताप जगतके प्राणियोंको फ्लेशित करता है। वे प्राणी उस पीड़ाके सहनेको असमर्थ होकर नानाप्रकार उद्यम करके धनका संग्रह करते हैं फिर धन लाकर इष्ट विषयोंकी सामनी लानेकी चेष्टा करते हैं और भोगते हैं फिर भी शांति नहीं पाते हैं, तृष्णाको बढ़ा लेते हैं । इस कारण इंद्रियसुखका भोग अधिक माकुलताका कारण है। तब इस रोगकी शांतिका उपाय अपने आत्मामें तिष्ठता है अर्थात् मात्मानुभव करता है ऐसा ही स्वामीने उसी स्तोत्रमें कहा है:खास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पुसा, स्वार्थो न भोगः परिभंगुरात्मा। तृषानुपनानच तापशांतिरितीदमाख्यभगवान सुपाः ।३२॥
भावार्ष-श्री सुपार्श्वनाथ भगवानने अच्छीतरह बता दिया है कि जीवोंका प्रयोजन क्षणभंगुर भोगोंसे सिद्ध नहीं होगा