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२४६] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । जिन नीवोंकी रुचि इंद्रियोंके विषयभोगोंमें होती है उनको मोह कर्मजनित अंतरंगमें पीड़ा होती है। यदि पीड़ा न होवे तो उसके दूर करनेका उपाय न किया नावे । वास्तवमें यही बात है कि जब जब जिस इंद्रियकी चाहकी दाह उपनती है उस समय यह प्राणी घबडाता है और उस दाहकी पीडाको न सह सकनेके कारण इंद्रियों के पदार्थोके भोगमें दौड़ता है। एक पलंगा अपने नेत्र इंद्रिय सम्बन्धी दाहकी शांतिके लिये ही झाकर अग्निकी लौमें पड़ जल जाता है। जैसे रोगी मनुष्य घबड़ाकर रोगकी पीड़ा न सह सकनेके कारण जो औषधि समझमें बाती है उस औषधिका सेवन कर लेता है-वर्तमानकी पीड़ा मिट नावे यही अधिक चाहना रहती है। पायके वश व अनादि संस्कारके वश यह प्राणी उस पीडाको मेटने के लिये विषयमोग करता है जिससे यद्यपि वर्तमानमें पीडाको मेट देता है परन्तु भागामी पीड़ाको
और बढ़ा देता है। विषयसेवन करना विषय चाहरूपी रोगके मेटनेकी सच्ची औषधि नहीं है तत्काल कुछ शांति होती है परन्तु रोग बढ जाता है। यही कारण है कि जो कोई भी प्राणी सैकड़ों हजारों वर्षों तक लगातार इंद्रियोंके भोगोंको भोगा करता है परन्तु किसी भी इन्द्रियकी चाहको शान्त नहीं कर सका । इसीसे यह इस रोगकी शांतिका उपाय नहीं है। शांतिका उपाय उस रोगकी जड़को मिटा देना है अर्थात उस कषायका दमन करना व नाश करना है जिसके उदयसे विषयकी वेदना पैदा होती है । जिसका नाश सम्यक्ती होकर अंतरंगमें अपने आत्माका दृढ़ श्रद्धान प्राप्तकर उस मात्माके स्वभावका भेद ज्ञान पूर्वक मनन करनेके उपायसे