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श्रीचनसार भाषाका । [ २३
समय मात्र तक ठहरनेवाला है इसलिये इसको बन्ध नहींसा कहना चाहिये क्योंकि हरएक कर्म बंघकी नघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त हे सो इन तीन गुणस्थानों में जघन्य स्थिति भी नहीं पड़ती । सातवें ले १० वे गुणस्थान में अबुद्धिरूप कषायका उदय है इससे तारतम्यसे जितना शुभपना है उतना यहां कमका घ है | चौथेसे ले छठें तक शुभोपयोगी मुख्यता है । यद्यपि स्वास्मानुभव करते हुए चौथे से ले ८वें तक शुद्ध भाव भी बुद्धि झलकता है तथापि वह अति अल्प है तथा उस स्वात्मानुभवके समय में भी कार्योकी करता है इससे उसको शुद्धोपयोग नहीं हा है। ससग भावसे ये तीन गुणस्थानवाले विशेष पुण्य कर्मका
करते हैं। चार अघातिया कर्ममें पुण्य पास भेद हैं किन्तु घातिया कर्म पापरूप ही हैं - इन घातिया कर्मोंका उदय कपाय कालिनाके साथ १० वे गुणस्थान तक होता है इससे इनका वन्ध भी १० वे गुणस्थान तक रहता है। नीचे तीन मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में सम्यक्त न होनेकी अपेक्षा अशुभोपयोन कहा है । यद्यपि इन गुणस्थानों के जीवोंके भी मदकाय रूप दान पूजा जप तपके भाव होते हैं और इन भावोंसे वे कुछ पुण्यकर्म भी करते हैं तथापि मिथ्यात्व के वलसे चार घातियारूप पाप फर्मोंका विशेष वंध होता है । सम्यक्त भूमिकाके बिना शुभपना उपयोग में आता नहीं । जहां निन शुद्धात्मा व उसका मतीन्द्रिय सुख उपादेय है ऐसी रुचि बैठ जाती है वहां सम्यक्त भूमिका बन जाती है तब वहां उपयोगको शुभ कहते हैं । यद्यपि सम्यक्ती गृहस्थोंके भी आरंभी हिंसा आदि अशुभ उपयोग होता है व