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________________ १२1 श्रीमवचनसार भाषाटीका । वर्तन करता हुशा चाहे हिंसा करें व नीवदया पाले, चाहे झूठ बोले या सत्य बोले उस जीवके अशुभोपयोग कहा जाता है, इसी अपेक्षा चौथे गुणस्थानसे ही अशुभोपयोगका प्रारम्भ है और बुद्धिपूर्वक धर्मानुराग छठे गुणस्थान तक रहता है उसके आगे नहीं इससे सात गुणस्थानसे शुद्धोपयोग है। यदि भावों की शुद्धता की अपेक्षा विचार करें तो यहां कपार्योका अभाव होकर बिलकुल भी झलुपता नहीं है, किन्तु ज्ञानोपयोग पवनवेग विना निश्चल समुदत निश्चल स्वस्वरूपाशक्त होजाता है वही शुद्धोपयोग है । अाहत सिद्ध अवस्थामें आत्मा यथास्वरूप है उस समय उपयो- को शुद्ध कहो नी भी ठीक है या शुद्धताका फलरूप हो तो भी सीक है क्योंकि शुद्ध अनुभवका फल शुद्ध होना है ! आत्मा परिणमन स्वभाव है तब ही उसके भीतर ज्ञान और चारित्रमा भी अन्य गुणोंकी तरह परिणमन हुमा करता है। कर्म बंध सहित पशुद्ध अवस्थामै ज्ञानका हीन अधिकरूप और चारित्र गुणका अशुभ, शुभ, तथा शुखरूप परिणमन होता है। इन दो परिणमनों को व्यवहारमें एक नामसे अशुभ उपयोग, शुभ उपयोग तथा शुद्ध उपयोग कहते हैं। शुद्ध उपयोग पूर्वबद्ध कौकी निर्गहरा करता है, शुभोपयोग पापकी निर्जरा तथा विशेषतासे पुण्य कर्मोंका व कुछ पाप कर्मोंका बंध करता है तथा अशुभोपयोग पाप कमों हीको बांधता है। शुद्धोपयोगीके ११ वें, १२ वें तेरहवें गुणस्थानमें जो आश्भव तथा बंध होता है वह योगोंके परिणमनका अपराध है शुद्ध चारित्र व ज्ञानका नहीं। यह आश्रव ईर्यापथ है व बन्ध एक
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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