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श्रीमवचनसार भाषाटीका । [32
सांसादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानोंमें तारतम्यसे कमती २ अशुभ उपयोग है । इसके पीछे असंयत सम्यग्दृष्टि, देशविरत तथा प्रमत्त संयत ऐसे तीन गुणस्थानों में ताग्तप्यसे शुभोपयोग है । उसके पीछे अप्रमत्तसे ले क्षीणकषाय तक छः गुणस्थानों में तारतम्य से शुद्धोपयोग है। उसके पीछे सयोगि जिन और भयोगि जिन इन दो गुणस्थानों में शुद्धोपयोगका फल है ऐसा भाव है।
भावार्थ - यहां आचार्यने ज्ञानोपयोगके तीन भेद बताए हैं। अशुभ उपयोग, शुभ उपयोग और शुद्ध उपयोग | वास्तवमैं ज्ञानका परिणमन ही ज्ञानोपयोग है सो उसकी अपेक्षा से ये तीन भेद नहीं हैं । ज्ञानमें ज्ञानावरणीय कर्मके अधिक २ क्षयोपशमसे ज्ञानका बढ़ता जाना तथा बढ़ते बढ़ने सर्वज्ञानावरणीय कर्मके क्षयसे पूर्णज्ञान होताना यह तो परिणमन है परंतु निश्वयसे अशुभ, शुभ, शुद्ध परिणमन नहीं है । कषाय भावों की क्लुपता जो पयोंके उदयसे ज्ञानके साथ साथ चारित्र गुणको विकृत करती हुई होती है उम कलुषताकी मपेक्षा तीन भेद उपयोग के लिये गए हैं। शुद्ध उपयोग कलुषता रहित उपयोगका नाम है - आगम में जहांसे इम जीवकी बुद्धिमें कषायका उदय होते हुए भी क्लुपताका झलकाव नहीं होता किन्तु वीतरागतामा भान होता है वहीं से शुद्धोपयोग माना है और जहां शुद्धोपयोग रूप होनेका राग है व शुद्धोपयोग होनेके कारणोंमें' अनुराग है वहां इस जीवके शुभोपयोग है इन दो उपयोगों को छोड़कर जहां शुद्धोपयोगकी पहचान ही नहीं है न शुद्ध होने की रुचि है किन्तु संसारिक सुखकी वासना है उस वासना सहित