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श्रीमवचनवार भाषाटीका । [ ३४७
उन्नति करते हुए पंचेन्द्रिय शरीर में आना बड़ा दुर्लभ है । मनुष्य होकर भी जिनेन्द्र भगवानका सार उपदेश मिलना दुर्लभ है । यदि कोई शास्त्रोंका मनन करेगा और गुरुसे समझेगा तथा अनु-, भवमें लायेगा तो उसे जिन भगवानका उपदेश समझ पड़ेगा । भगवानका उपदेश मात्मा के शत्रुओंके नाशके लिये निश्चय रस्नत्रयरूप स्वात्मानुभव है । इसीके द्वारा रागद्वेष मोहका नाश हो सक्ता है। सिवाय इस खड़गके और किसीमें बल नहीं है जो इन अनादिसे लगे हुए आत्माके वैरियोंका नाश किया जावे। जो कोई इस उपदेशको समझ भी लेवे परन्तु पुरुषार्थ करके स्वात्मानुभव न करे तो वह कभी भी दुःखोंसे छूटकर मुक्त नहीं होता । जैसा यहां आचार्य ने कहा है, वैसा ही श्री समयसार जी में आपने इन रागद्वेष मोहके नाशका उपाय इस गाथासे सूचित किया है-
जो आदभावणमिणं निच्चुवजुत्तो मुणी समाचरदि । सो सव्वदुक्खमक्खं पावदि अचिरेण कालेन ॥ १२ ॥
भावार्थ- जो कोई मुनि नित्य उद्यमवंत होकर निज आत्माकी भावनाको आचरण करता है वह शीघ्र ही सर्व 'दुःखोंसे छूट जाता है ।
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श्री योगेन्द्रदेवने श्री ममृताशीति में इसी बातकी प्रेरणा की हैसत्साम्यभाव गिरिगहर मध्यमेत्य । पद्मासनादिकमदोषमिदं च वद्ध्वा । आत्मानमात्मनि सखे ! परमात्मरूपं । व ध्याय वोल्स मनु यन सुखं समाधेः ॥ २८ ॥