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३४८] श्रीप्रवचनसार भापाटीका ।
भावार्थ-सच्चे समताभाव रूपी पहाड़की गुफाके मध्यमें जाकर और दोष रहित पद्मासन आदि कोई भी आसन बांधकर हे मित्र ! तू अपने आत्मामें अपने परमात्म रूपका ध्यान कर, जिससे अवश्य तू समाधिक आनंदको भोगेगा।
प्राचार्य कुलभद्रजीने सारसमुच्चयमें कहा हैआत्मानं स्नापयनित्यं ज्ञाननीरेण चारुणा । येन निर्मलतां याति जीवो जन्मान्तरेवपि ॥ ३१४ ।।
भाव यह है कि नित्य ही सुंदर आत्मज्ञानरूपी जलसे आत्माको स्नान कराना चाहिये, जिससे यह जीव जन्म जन्म भी निर्भलताको प्राप्त हो जावे। वास्तवमें यह जीव उपयोगको थिरकर भेदज्ञान द्वारा परको अलगकर निजको ग्रहण करता है तब ही बीतराग चारित्रके द्वारा मोहकर्मका नाश करता है। इस तरह द्रव्य, गुण, पर्यायके संवन्धमें मूढताको दूर करने के लिये
ओंसे तीसरी ज्ञानकंठिका पूर्ण हुई ॥ ९५ ॥ उत्थानिका-आगे सुचित करते हैं कि अपने आत्मा और परके भेद विज्ञानसे मोहका क्षय होता है । णाणप्पगलप्पाणं, परं च दव्यत्तणाहि संपर्छ । जाणदि जदि णिच्छयदो, जो सो मोहक्वयं
कुणदि ॥ ९ ॥ ज्ञानात्मकमात्मानं परं च द्रव्यत्त्वेनामिसंबद्धम् । जानाति यदि निश्चयो यः स मोहक्षयं करोति ॥ ९६ ॥ सामान्याथ-जो कोई यदि निश्चय अपने ज्ञान स्व