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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [३४९ रूप आत्माको तथा अन्य चेतन अचेतन पदार्थको अपने अपने द्रव्यपनेसे सम्बंधित जानता है वही मोहका क्षय करता है।
अन्वय सहित विशेषार्थः-(जो ) जो कोई (णिच्छयदो) निश्चय नयके. द्वारा भेदज्ञानको आश्रय करके (जदि) 'यदि (णाणप्पगमप्पाणं परं च दव्वत्तणाहि संबद्धं जाणदि ) अपने .ज्ञान स्वरूप मात्माको अपने ही शुद्ध चैतन्य द्रव्यपनेसे सम्बंधित तथा अन्य चेतन अचेतन पदार्थोंको यथायोग्य अपनेसे पर चेतन' अचेतन द्रव्यपनेसे सम्बंधित जानता है या अनुभव करता है (सो मोहक्खयं कुणदि ) वही मोह रहित परमानन्दमई एक स्वभावरूप शुद्धात्मासे विपरीत मोहका क्षय करता है। . भावार्थ-यहां आचार्यने भेद विज्ञानका प्रकार बताया है। पहले तो अनादिसे सम्बंधित पुद्गल और आत्माको अलगअलग द्रव्य पहचानना चाहिये। आत्माका चेतन द्रव्यपना आत्मामें तथा पुद्गलका अचेतन द्रव्यपनां पुद्गलमें जानना चाहिये फिर अपने स्वाभाविक आत्म पदार्थसे सर्व अन्य आत्माओंको तथा अन्य पांच द्रव्यों को भी मिन्न२ जानना चाहिये इस तरह जब निश्चयनयके द्वारा द्रव्यदृष्टिसे जगतको देखनेका अभ्यास डाले तव इस देखनेवालेकी पर्यायष्टि गौण हो जाती है और द्रव्यदृष्टि मुख्य हो जाती है। तब द्रव्यदृष्टिमें पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और जीव सब अपने२ स्वभावमें दिखते हैं । अनंत आत्माएं भी सब समान शुद्ध ज्ञानानंदमयी भासती हैं-तब समताकी भावना दृढ़ हो जाती है। रागद्वेष मोह अपने आप चले जाते हैं। मात्र पर्यायष्टिमें रागद्वेष मोह झल--