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श्रीमवचनसार भाषाटीका। [२१ अन्वय सहित विशेषार्थ-( जीवस ) इस जीवके . (देरणणाणपहाणादो) सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी प्रधानता पूर्वक (चरित्तादो) सम्यग्चारित्रके पालनेसे (देवासुरमणुयराय विहवेहि ) कापासी, भवनत्रिक तथा चक्रपी भादि राज्यकी विभूतियों के साथ२ (णिव्वाण) निर्वाण (संपनदि) प्राप्त होती है। प्रयोजन यह है कि बात्माके आधीन मिन सहन ज्ञान और सहन मानंद स्वभाववाले अपने शुद्ध आत्मद्रव्यमें जो निश्चलतासे विकार रहित अनुभूति प्राप्त करना अथवा उसमें ठहरजाना सोही है लक्षण निसका ऐसे निश्चय चारित्रके प्रभावसे इस जीव पराधीन इन्द्रिय जनित ज्ञान और सुखसे विलक्षण तथा स्वाधीन मतीन्द्रिय उत्कष्ट ज्ञान और अनंत सुख है लक्षण जितका ऐसा निर्वाण प्राप्त होता है । तथा सराग चारित्रके कारण पल्पवासी देव, भवनत्रिकदेव, चक्रवर्ती आदिकी विभूतिको उत्पन्न करनेवाला मुख्यतासे विशेष पुण्ययंध होता है तथा उससे परम्परासे निर्वाण प्राप्त होता है।
सुरोंके मध्य में सम्यग्दृष्टि कसे उत्पन्न होता है ? इसका समाथान यह है कि निदान करनेके भावसे सम्यक्तझी विराधना करके यह जीव भवनत्रिकमें उत्पन्न होता है ऐसा मानना चाहिये। यहां भाव यह है कि निश्चय नयसे वीतराग चारित्र उपादेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य है तथा सराग चारित्र हेय अर्थात् त्यागने योग्य है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने उस वीतराग चारित्ररूप शांत भावकी महिमा बताई है जिसका आश्रय उन्होंने किया है। वह वीतराग चारित्र निसके साथ शुद्धात्मा और उसका