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श्रीचनसार भापाटीका ।
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ज्ञानगुणका भी अभाव हो गया इस तरह एकान्त मतमें ज्ञान और आत्मा दोनोंका ही अभाव हो जायगा । इसलिये किसी . अपेक्षा से ज्ञान स्वरूप आत्मा है सर्वधा ज्ञान ही नहीं है। यहां यह effee है कि आत्मा व्यापक हैं और ज्ञान व्याप्य है इस लिपे ज्ञान स्वरूप आत्मा हो सक्ता है । तथा आत्मा ज्ञानस्वरूप भी है और अन्य भावरूप भी है। तैसा ही कहा है "व्यापकं तदनिष्ठ व्याप्यं तन्निष्ठमेव च " व्यापकमें व्याप्य एक और दूसरे अनेक रह के हैं जबकि व्याप्य व्यापकमें ही रहता है ।
भावार्थ - इन गाथा में आचार्यने इस बातको स्पष्ट किया हे कि यात्गा केवल ज्ञानमात्र ही नहीं है किंतु अनंत धर्म स्वरूप है । कोई कोई आत्माको ज्ञान मात्र ही मानते हैं-ऐसा मान आत्मा द्रव्य, ज्ञानगुण ऐसा कहने की कोई जरूरत न रहेगी फिल तो मन एक ज्ञानको ही मानना पड़ेगा । तत्र ज्ञानगुण बिना किसी कारके कैसे ठहर सकेगा क्योंकि कोई गुण द्रव्यके दिना पाया नहीं जा सका, द्रव्यता अभाव होनेसे ज्ञानगुणका भी अभाव हो जायगा शासे आचार्यने कहा है कि शाम तो अब
रूप है कि ज्ञानका चौर आत्माका एक लक्षणात्मक सम्बन्ध है | आत्मा लक्ष्य है ज्ञान उसका लक्षण है। ज्ञानलक्षण में मतिव्याप्ति, जन्मात नारम्भव दोष नहीं हैं क्योंकि ज्ञान सर्व णात्माओं को छोड़कर अन्य पुगुल यादि पांव द्रव्योंमें नहीं पाया जाता तथा ज्ञानवर्जित कोई आत्मा नहीं है इसलिये ज्ञान स्वभाव रूप तो आत्मा अवश्य है परन्तु यात्मा द्रव्य है इससे वह जनंवगुण व पर्यायोंका आधारभूत समुदाय है । आत्मामें सामान्य व
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