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११२] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । णाणं अप्पत्ति मदं,वहदि गाणं विणा ण अप्पाणं। तम्हाणाणं अप्पा, अप्पा णाणं व अण्णं वा ॥२८॥
ज्ञानमात्मेति मत वर्तते ज्ञान विना नात्मानम् । .. तस्मात् ज्ञानमारमा आत्मा ज्ञानं वा अन्यद्वा ॥ २८ ॥ .
सामान्यार्थ-ज्ञान आत्मा है ऐसा माना गया है क्योंकि ज्ञान आत्माके विना कहीं नहीं रहता है इसलिये ज्ञान आत्मारूप है परन्तु आत्मा ज्ञानरूप भी है तथा अन्यरूप भी है।
अन्वय सहित विशेषार्थ:-(गाणं ज्ञानगुण (अप्पत्ति) मात्मा रूप है ऐसा (मदं) माना गया है कारण कि (गाण) ज्ञान गुण (अप्पाणं) आत्मा द्रव्यके (विणा) विना अन्य किसी घट पट आदि द्रव्यमें (ण वदि) नहीं रहता है ( तम्हा) इसलिये यह जाना जाता है कि किसी अपेक्षाले अर्थात् गुण गुणीकी अभेद दृष्टि से ( णाणं) ज्ञानगुण , मप्पा ) आत्मारूप ही है। किन्तु (अप्पा) आत्मा (गाणं च) ज्ञानगुण रूप भी है, जब ज्ञान स्वभावकी अपेक्षा विचारा जाता है ( अण्णं वा) तथा अन्य गुणरूप भी है जब उसके अंदर पाए जानेवाले सुख वीर्य आदि स्वभावोंकी अपेक्षा विचारा जाता है। यह नियम नहीं है कि मात्र ज्ञानरूप ही आत्मा है। यदि एकान्तसे ज्ञान ही आत्मा है ऐसा कहा जाय तब ज्ञानगुण मात्र ही आत्मा प्राप्त हो गया फिर सुख,आदि स्वभावोंका अवकाश नहीं रहा !. तथा सुख, वीर्य आदि स्वभावोंके समुदायका अभाव होनेसे आत्माका प्रभाव हो जायगा। जब आधारभूत आत्मा अभाव हो गया तव उसका आधेयंभूत