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३२८ ] श्रीमसार भाषाका |
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अज्ञाननामतिभिरनस सेयमृन्तः रान्दर्शिताखिलपदार्थ वपर्ययात्मामंत्री स मोहनृपतेः स्फुरतीह यावतावत्कुतस्तव शिवं तदुपायता या ||१४||
भावार्थ यह है कि मोह राजाका मंत्री जो अज्ञान नामके अन्धकारक फैला जिससे अंतरंग में सम्पूर्ण पदार्थों का उल्टा स्वरूप मालूम पड़ता है, जब तक अंतरंग में प्रगट रहता है त तक हे आत्मान् ! कहां तेरे मोक्ष है और कहां तेरे इस मोक्षका उपाय है | श्री कुलभद्र आचार्यने श्री सारसमुच्चयमें भी इस भांति कहा है :
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कपायकलुषो जीवो रागरंजितमानसः । चतुर्गतिभवावशेधा भिन्ना नौवि सीदति ॥ ३१ ॥ aurraaगो जीवो कर्म वध्नाति दारुणम् । dara samrata भकोटिनु दारुणम् ॥ ३२ ॥ उपायविश्चित्तं मिथ्यात्वेन च सयुतम् । संमारतां याति विमुक्तं मोक्षवीजताम् ॥ ३३ ॥ भाव यह है कि जो जीव कपायले मैला है व जिसका मन सबसे रंगीला है वह टूटी हुई नौका के समान चार गतिरूप संसेर समुद्रमें कष्ट उठाता है । कषायके आधीन नीव भयानक भेद ता है। जिससे यह करोडों जन्मोंमें भयानक दुखको यह आत्मा पूर्ण अक्षुमित. ध्यात्वसहित है व कपाय विषयोंसे पूर्ण जो २ भेद मिटता जाता हो और जो चित्त इन दिथ्यात्व व विषय
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शके बोजपनेको प्रांत होता है । ऐसा