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श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
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जान मोहसे उदास हो निर्मोह शुद्ध आत्मा ही के सन्मुख होना चाहिये । ॥ ९० ॥
उत्थानका- आगे आचार्य यह घोषणा करते हैं कि इन राग द्वेष मोहोंको जो संसारके दुःखोंके कारणरूप कर्मबंधके कारण हैं, निर्मूक करना चाहिये ।
मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्य जीवस्स । जायद विविहो वो तम्हा ते संखवइदव्वा ॥९१॥
मोहेन वा रागेण वा द्वेपेण वा परिणतस्य जीवस्य । जायते विविधो बन्धरतस्माचे संक्षयितव्याः ॥ ९२ ॥
सामान्यार्थ - मोह तथा राग द्वेषसे परिणमन करनेवाले आत्मा नाना प्रकार कर्म बंध होता है इसलिये इनका क्षय करना ये है ।
अन्य सहित विशेषार्थ - (मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणवस जीवस्स) मोह राग द्वेषमें वर्तनेवाले बहिरात्मा farmeष्ट नीव को मोहादि रहित परमात्माके स्वरूपमें परणमन करने से दूर है (विविहो बंधो जायदि) नाना प्रकार कर्मोंका
उत्पन्न होता है अर्थात् शुद्धोपयोग लक्षणको रखनेवाला भाव मोक्ष है। उस भावमोक्षके बलमे जीवके प्रदेशोंसे कर्मोंके प्रदेशोंका बिलकुल अलग हो जाना द्रव्य मोक्ष है। इस प्रकार द्रव्य भाव मोक्षसे विलक्षण तथा सब तरहसे ग्रहण करने योग्य स्वाभाविक सुखसे विपरीत जो नरक आदिका दुःख उसको उदयमें कानेवाला कर्म बंध होता है (तम्हा ते संस्खवहदब्बा) इसलिये जब राग द्वेष