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श्रीमवचनसार भाषाटीका। [२७१ स्वभावको प्रगट करनेके लिये रत्नत्रयमई धर्मका यत्न सर्व परिग्रह छोड़ व तेरा प्रकार चारित्र धारणकर करते हैं वे यति या साधु हैं। इनकी पूजा करनी शुमोपयोग है। साधुओंकी भक्ति आठ द्रव्योंसे पूजा, स्तुति, नमस्कारसे भी होती तथा भक्तिपूर्वक शुद्ध माहार,
औषधि व शास्त्र दानसे भी होती है । जो साधु स्वयं रत्नत्रयको साधते हुए दूसरोंको साधुधर्म साधन कराते अथवा उनको शास्त्रकी शिक्षा देते ऐसे आचार्य और उपाध्याय गुरु हैं। इनकी पूनामें भाशक्त होना शुभोपयोग है इस तरह " देवदादिगुरुपूजा" इल एक पदसे भाचार्यने अरहंत, सिड, भाचार्य, उपाध्याय
और साधु इन पांचों परमेष्टियोंकी भक्तिको सूचित किया है। दानमें भक्ति पूर्वक उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रोंको पात्रदान तथा दया पूर्वक दुःखितों व अज्ञानियों को माहार, औषधि, विद्या सथा अमयदान करना वाया है। जैसे पूमा कानेसे कषाय मंद होती है वैसे दान देनेसे पाय मंद होती है। बीसरे सुशोलोंमें महाव्रतरूप तथा अणुव्रतरूप मुनि व श्रावकका व्यवहार चारित्र बताया है। मुनियाँको पाँच महात, पांच समिति तथा तीन गुप्तिमें और श्रावकोंको बारहवारूप चारित्रमें लवलीन होना चाहिये-यह सब शुभोपयोग है। उपवासारिमें बारह प्रकार तप समझने चाहिये-इन तपोंमें मुनिको पूर्ण रूपसे तथा श्रावकोंको एक देशमें भाशक्त होना चाहिये। इनमें मुख्य तप ध्यान है, ध्यान करने में प्रीति, उपशाम करने में मनुगग, सत्याग करने में रति इत्यादि १२ तो प्रेम करना शुभोपयोग है।
इस शुभोपयोगमें परिणमन करनेवाला मात्मा स्वयं शुभो.