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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
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पूजा जावे उसके गुणोंमें लीनता भाव पूजा है । वचनसे नमः शब्द कहना व अंगोंका झुकाना द्रव्य नमस्कार है वैसे पूज्य
पुरुषके गुणानुवाद गाना, नमन करना, अष्टद्रव्यकी भेट चढाना द्रव्य पूजा है । द्रव्य पूजा निमित्त है भाव पूजा 'साक्षात् पूंना है । यदि भाव पूजा न हो तो द्रव्य पूजा कार्यकारी नहीं होगी । -इसलिये अरहंत व सिद्धकी भक्ति भावकी निर्मलता के लिये ही करनी चाहिये | श्री समंत भद्राचार्यने स्वयंभू स्तोत्र में भक्ति करते हुए यही भाव झलकाया है जैसे
स विश्वचक्षुषोऽर्चितः सतां समग्रविद्यात्मवपुर्निरंजनः । पुनातु चेतो ममं नाभिनन्दनो जिनो जिल्लवादिशासनंः॥ ५ ॥
भावार्थ - वह जगतको देखने वाले, साधुओंसे पूज्यनीक पूर्ण ज्ञानमई देहके धारी, निरंजन व अल्पज्ञानी अन्य वादियों के मतको जीतनेवाले श्री नाभिराजाके पुत्र श्री वृषभ जिनेन्द्र मेरे चित्तको पवित्र करो । भावोंकी निर्मळता होनेसे जो शुभ राग होता है वह तो महान पुण्य कर्मको बांधता है व जितने अंश वीतराग भाव होता है वह पूर्व बंधे हुए कर्मोकी निर्जरा करता है- यहां देवताका आराधन अरहंत व सिद्धका आराधन ही समझना चाहिये। जिनको बड़े २ इन्द्र, घरणेन्द्र, चक्रवर्ती, साधु, गणधर आदि मस्तक
माते हैं वे ही एक जैन गृहस्थके द्वारा भी पूमने योग्य देव हैं। इनको छोड़कर अन्य रागद्वेय सहित कर्मबन्ध में बन्धे जन्म मरण करनेवाले स्वर्गवासी व पातालबासी व मध्यलोकवासी देवगतिमें तिष्ठे हुए किसी भी जीवको देवता मानकर पूजना व आराधना नहीं चाहिये। जो इन्द्रियोंके विषयोंकी चाहनाको छोड़कर शुद्ध त्माके