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१०. श्रीभवचनसार भाषाटीकाः।. संसारो विश विनदि, सवोस जीवकायाणं ॥४६! • यदि स. शुभो वा अशुभो न भवति आत्मा स्वयं स्वभावेन । । . संसारोपि न विद्यते सर्वेषां जीवकायानाम् ॥४६॥. .. , सामान्यार्थ-यदि यह आत्मा अपने स्वभावले स्वयं शुभ या अशुभ न होवै तो सर्व जीवोंको संसार ही न होवे । :
" अन्वय सहित विशेषार्थ-(नदि ) यदि" (सः मादा ) वह आत्मा ( सहावेण ) स्वभावसे ( सय ) आप ही ('सुहः) शुभ परिणामरूप ( व अमुहः) अथवा अशुभ परिणाम रूप ('ण हवदि) न होवै । अर्थात जैखे शुद्ध निश्चय नय करके आत्मा शुभ या अशुभ भावोंसे नहीं परिणमन करता है तैसे ही अशुद्ध नयसे भी स्वयं "अपने 'ही उपादान कारणसे' अर्थात् स्वभावसे अथवा अशुद्ध निश्चयसे भी यदि शुभ या अशुभ भावरूप नहीं परिणमन करता है । ऐसा यदि मानाजावे तो क्या दूषणे आएगा उसके लिये कहते हैं कि (सव्वेसि जीवकायाण ) सर्व ही जीवं समूहोंको (संसारोवि ण विजदि.) संसार अवस्था ही नहीं रहेगी । अर्थात् संसार रहित शुद्ध मात्मस्वरूपसे प्रतिपक्षी जो संसार सो व्यवहारनयसे भी नहीं रहेगा।
भाव यह है कि आत्मा परिणमनशील है। वह कर्मोकी उपाधिके निमित्तसे स्फटिझमणिकी तरह उपाधिको ग्रहण करता है इस कारण संसारका अभाव नहीं है। अब कोई शंकाकार कहता है कि सांख्योंके यहां संसारको अभाव होना दूषा, नहीं है किन्तु भूषण' ही है। उसका समाधान करते हैं कि ऐसा नहीं