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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका |
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बात असंभव है । दूसरा पक्ष यदि यह मानाजाय कि आत्मा ज्ञानगुणसे बड़ा है ज्ञानगुण छोटा है तब भी नहीं बन सक्ता है क्योंकि जितना आत्मा ज्ञानगुणसे बड़ा माना जायगा उतना आत्मा ज्ञानगुण रहित अज्ञानमय अचेतन होजायगा और अपने जाननेके कामको न करसकनेके कारण जड़ पुद्गलमय होता हुभा अपने नामको कभी नहीं रखसक्ता है कि मैं आत्मा हूं। जैसे यदि अग्निको उष्ण मुखसे बड़ा माना नाय तो जितनी अग्नि उष्णता रहित होगी वह ढंढी होगी तत्र जलानेके कामको न कर सकेगी तब वह अपने नामको ही खो बैठेगी सो यह बात असंभव है वैसे आत्मा ज्ञानगुणके विना जड़ अवस्था में आत्मा के नामसे जीवित रह सके यह बात भी असंभव है। इससे यह सिद्ध हुआ कि न आत्मा ज्ञानगुणसे छोटा है न बड़ा है, जितना बड़ा आत्मा है उतना बडा ज्ञान है, जितना ज्ञान है उतना आत्मा है । प्रदेशकी अपेक्षा आत्मा असंख्यात प्रदेशी है उतना ही बड़ा उसका गुण ज्ञान है। शरीर में रहता हुआ आत्मा शरीर प्रमाण है अथवा मोक्ष व्यवस्था में अंतिम शरीरसे कुछ कम भकारवाला है उतना ही बड़ा उसका ज्ञानगुण हैं । जब समुद्घात करता है अर्थात् शरीरमें रहते हुए भी फैलकर शरीर के बाहर आत्माके प्रदेश जाते हैं जो अन्य छ समुद्घातों में थोड़ी २ दूर जाते हैं परंतु केवल समुद्रघात में लोकव्यापी होजाते हैं और फिर शरीर प्रमाण हो जाते हैं तब भी जैसा आत्मा फैलता सकुड़ता है वैसे ही उसके ज्ञानादि गुण रहते हैं | चंद्रमा जैसे अपनी प्रभा सहित ही छोटा या बड़ा होता है वैसे आत्मा अपने ज्ञानादि गुण सहित छोटा या