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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
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है - रागद्वेष मोह करना उसका स्वभाव नहीं है । शुद्ध केवलज्ञानमैं मोहनीयकर्मके उदयका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है इसीसे वह निर्विकार है और बंघ रहित कहा गया है। जहां इंद्रिय तथा मनद्वारा अल्पज्ञान होता है वहां जितना अंश मोहका उदय होता है उतनी ही ज्ञानमें मलीनता होजाती है, मलीनता होनेका भाव यही लेना चाहिये कि आत्मा में एक चारित्र नामका गुण है उसका विभाव रूप परिणमन होता है। जब मोहका उदय नहीं होता है। तत्र चारित्र गुणका स्वभाव परिणमन होता है । इस परिणमनकी जातिको दिखलाना बिलकुल दुष्कर कार्य है। पुदुलमें कोई ऐसा दृष्टांत नहीं मिल सक्ता तौ भी आचार्योंने जहां तहां यही दृष्टांत दिया है कि जैसे काले नीले, हरे, लाल डांकके निमित्तसे स्फटिक मणिकी स्वच्छता में काला, नीला, हरा व लाल रंग रूप परिणमन होजाता है वैसे मोह कर्मके उदयसे यात्माका उपयोग या चारित्र गुण क्रोधादि भाव परिणत होजाता है । ऐसे परिणमन होते हुए भी जैसे स्फटिक किसी वर्ण रूप होते हुए भी वह वर्णपना स्फटिकमें जाल कृष्ण आदि डांकके निमित्तसे झलक रहा है स्फटिका स्वभाव नहीं हैं, ऐसे ही क्रोध आदि भावपना क्रोधादिक कषायके निमित्तसे उपयोग में झलक रहा है क्रोधादि आत्माका स्वभाव नहीं है । परके निमित्तसे होनेवाले भाव निमि - तके दूर होनेपर नहीं होते हैं। नक्तक मोहके उदयका निमित्त है aasa भी है। जहां निमित्त नहीं रहा वहां कर्मका
बंध भी नहीं होता है इसीसे शुद्ध केवलज्ञानीको बंघ रहित कहा गया है । तात्पर्य यह है कि हम अल्पज्ञानियोंको भी सम्यकू
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