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२०५ ] . श्रमिवचनसार भाषाटीका ।
ज्ञान हो या अवधि, मन:पर्ययज्ञान हो या केवलज्ञान हो । ज्ञानके साथ जितना मोहनीय कर्मके उदयसे राग, द्वेष, या मोहका अधिक या कम अंश कलुषपन या विकार रहता है वही कार्माण वर्गणारूपी पुलों कर्मधरूप परिणमा वनेको निमित्त कारण - रूप है | शरीरपर माई हुई रम शरीरपर चिकनई होने से ही. जमती है वैसे ही कर्मरज आत्मामें मोहकी चिकनई होनेपर ही बंधको प्राप्त होती है ।
वास्तव में केवलज्ञानको रोकने में प्रबल कारण मोह ही है। यही उपयोगकी चंचलता रखता है। इसी के उद्वेगके कारण आत्मामें स्थिरतारूप चारित्र नहीं होता है जिस चारित्रके हुए विना ज्ञानावरणीयका क्षय नहीं होता है। जिसके क्षयके विना केवलज्ञानका प्रकाश नहीं पैदा होता है । आत्माका तथा अन्य किसी भी द्रव्यका स्वभाव पर द्रव्यरूप परिणमनेका नहीं है । हरएक द्रव्य अपने ही गुणोंमें परिणमन करता है - अपनी ही उत्तर अवस्थाको ग्रहण करता है और अपनी ही उत्तर पर्यायको उत्पन्न करता है। सुवर्णसे सुवर्णके कुंडल बनते हैं, लोहेसे लोहेके सांकल व कुंडे बनते हैं। सुवर्णसे लोहेकी और लोहेसे सुवर्णकी वस्तुएं नहीं बन सकती हैं । जब एक सुवकी डली से एक सुद्रिका बनी तत्र सुवर्ण स्वयं मुद्रिका रूप परिणमा है, सुवर्णने स्वयं मुद्रिकाकी पर्यायोंको ग्रहण किया है तथा सुवर्ण स्वयं मुद्रिकाकी अवस्थामें पैदा हुआ है । यह दृष्टांत है | यही बात दृष्टांत में लगाना चाहिये । स्वभावसे आत्मा दीपक के समान स्वपरका देखने जाननेवाला है । वह सदा देखता नानता रहता है अर्थात् वह सदा इस ज्ञेतिक्रियाको करता रहता