________________
namummmmmimirmire
श्रीमवचनसार भापाटीका। [१६५ जाती जो केवलज्ञानमें न झलके । इसीको सर्वज्ञता कहते हैं-व इसीके स्वामी आत्माको सर्वज्ञ कहते हैं। इस कथनसे आचार्यने केवलज्ञानको ही उपादेय कहा है और मति आदि चारों ज्ञानोंको त्यागने योग्य कहा है क्योंकि ये चारों ही अपूर्ण तथा क्रमसे जानते हैं-मलिश्नुत परोक्ष होकर मृतक अमूर्तीक द्रव्योंकी कुछ स्यूल पर्यायोंका जनते हैं-अवधि तथा मनःपर्यय एक देश प्रत्यक्ष होकर अमूर्तीकको नहीं मानते हुए केवल मूर्तीक द्रव्योंकी कुछ पर्यायोंको क्रममे जानते हैं परन्तु केबलज्ञान एक साल सब कुछ जानता है क्नोंकि यह ज्ञान क्षायिक है, आवरण रहित है. जबकि अन्य ज्ञान क्षयोपसमरून सावरण हैं ऐसा केवलज्ञान प्राप्त करने योग्य है। जो निज हितार्थी मव्य जीव हैं उनको चाहिये कि इन्द्रिप और मनके सर्व विकल्पोंको त्यागकर आत्माभिमुसी हो अपने में ही अपने आत्माका स्वसंवेदन प्राप्त करके स्थानुभाव करें और इसी निन आत्माके स्वादमें सदा लवलीन रहें । इसी ही आत्मज्ञान के प्रभारसे परमानन्धमई सर्वज्ञपद प्राप्त होता है। जैसी भावना होती है वप्ती फलनों है । स्वस्वरूपकी भावना ही स्वस्वरूपकी प्रगटताकी मुख्य साधिका है, आत्मज्ञानके हो अभ्याससे अज्ञान मिटता है। श्री पूज्यपाद स्वामीने श्रीसमाधिशतकमें कहा है।
तब्रूयाचत्परान्पृच्छेचदिच्छेचत्परो भवेत् । येनाविघामयं रूपं त्यक्त्वा विचामयं ब्रमत् ।।
भाव यह है कि आत्माकी ही कथनी रे, दूसरोंको पूछे जसीकी ही इच्छा करे, उसी.'