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१६] 'श्रीप्रवचनसार भोपाटीको ।
Hinidiminanimirm ::अन्वय सहित विशेषार्थ-जो ज्ञान (अपदेसी बहु प्रदेश रहित कालाणु व परमाणु भांदिको (सपदेसें) बहु प्रदेशी शुद्ध नीवको मादि ले पांच' अस्तिकायोंके स्वरूपको (मुत्त) मूर्तीक युद्गल द्रव्यको ( ममुत्तं ) और अमूर्तीक शुद्ध नीव आदि पांच द्रव्योंको (अजाद ) अभी नहीं उत्पन्न हुई होनेवाली (चपलयं गये और छूट जानेवाली भूतकालकी ( पज्जयं) द्रव्योंकी पर्यायोंको इस सब ज्ञेयको (जाणदि) जानता है (तं गाणं) वह ज्ञान (मदिदियं ) अतीन्द्रिय ( भणिय ) कहा गया है । इसी हीसे सर्वज्ञ होता है । इस कारणसे ही पूर्व गाथामें कहे हुए इंद्रियज्ञान तथा मानस ज्ञानको छोकर जो कोई विकल्प रहित समाधिमई स्वसंवेदन ज्ञानमें सर्व विभाव परिणामों को त्याग करके प्रीनि व लयता करने हैं वे ही परम आनन्द है एक. लक्षण जिसका ऐसे मुख स्वभावमई मवेज्ञपनको प्राप्त करते हैं यह अभिप्राय है।
. भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने. केवलज्ञानकी और भी विशेषता झलकाई है कि जो ज्ञान , इन्द्रिय और मनकी सहाय विना केवल आत्माकी स्वभावरूप शुद्ध अवस्थामें प्रगट होता है उसीमें यह. शक्ति है जो वह वहु प्रदेश रहित संख्यात कालाणुओंको तथा छुटे हुए परमाणुओंको प्रत्यक्ष मान सकें तथा बहुप्रदेशी सर्व मात्माओंको, पुद्गल स्कंधोंको, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा अनंत आकाशको प्रत्यक्ष देख सके । वही सर्व मूर्तीक अमूर्तीक द्रव्यको मलंगर जानता है. तथा हरएक द्रव्यंकी जो अनंत पर्यायें हो गई हैं व होंगी उन संबको भी अच्छी तरह मिनर जानता है. अर्थात कोई जानने योग्य बात शेष नहीं रहे