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१६२ ]. श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । इसीके छाम्यससे अज्ञानमई अवस्था मिटकर ज्ञानमई . अवस्थाको प्राप्त करे। .. ... श्री नागसेन मुनिने श्री तत्त्वानुशासन में कहा है
परिणमते येनात्मा भावेन स तेन तन्मयो भवति । अर्हद्धयानाविष्टों भावार्हः स्यात्स्वयं तस्मात् ॥ २९ ॥ येन भावेन यद्रूपं ध्यायत्यात्मानमात्मवित् । " ... तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा ॥ १९१ ।।
भाव यह है कि यह आत्मा जिस भावसे परिणमन करता है उसीके साथ तन्मई होजाता है । जब श्री अहंत भगवानके घ्यानमें ठहरता है तब उस ध्यानसे वह स्वयंभावमें अहतरूप होजाता है । आत्मज्ञानी निस भावसे निसरूप मात्माको ध्याता है वह उमी भावके साथ तन्मई हो जाता है जैसे फटिक पाषाणमें जैसी डाककी उपाधि लगे वह उस ही रंगरूप परिणमन कर जाती है । ऐसा जानकर जिस तरह बने स्वस्वरूपकी आराधना करके ज्ञानको विशुद्ध करना चाहिये। ।
इस प्रकार अतीत व अनागत पर्यायें वर्तमान ज्ञानमें प्रत्यक्ष नहीं होती हैं ऐसे बौद्धोंके मतको निराकरण करते हुए तीन गाथाएं कहीं, उसके पीछे इंद्रियज्ञानसे सर्वज्ञ नहीं होता है किंतु अतीन्द्रिय ज्ञानसे होता है ऐसा कहकर नैयायिक मतके अनुसार चलनेवाले शिष्यको समझानेके लिये गाथा दो, ऐसे ‘समुदायसे पांचवें स्थलमें पांच गाथाएं पूर्ण हुई ॥ ४१॥ ....
उत्थानिका-मागे पांच गाथाओं तक यह व्याख्यान करते हैं कि राग, द्वेष, मोह, बंधके कारण हैं, ज्ञान बंधका कारण