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श्रीमवचनसार भाषाटीका । [ १७५
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किंतु भीतरसे नहीं चाहता है मात्र आवश्यक्ता व् कर्मके तीव्र उदय के अनुसार लाचारीसे क्रियायें करता है इसी कारण वह ज्ञानी संसार के कारण कर्मोंको नहीं, बांधता है- बहुत अल्प कर्म बांधता है जिसको आचार्योंने प्रशंसारूप वचनोंके द्वारा अबंध कह दिया है। प्रयोजन यह है कि बंध कषायोंके अनुकूल होता है। एक हीं कार्यके होते हुए जिसके कषाय तीव्र वह अधिक व जिसके कषाय मंद वह कम पाप बांधता है। एक स्वामीने किसी सेवकको किसी पशुके बघकी आज्ञा दी । स्वामी वध न करता हुआ भी रागकी तीव्रता से अधिक पापबंध करता है जब कि सेवक यदि मनमें
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बघसे हेय बुद्धि रखता है और स्वामीकी आज्ञा पालनेके हेतु ध करता है तो स्वामीकी अपेक्षा कम पाप बंध करता है । रागद्वेषके अनुसार ही पाप पुण्यका बंध होता है ।
श्री आत्मानुशासन में श्रीगुणभद्रस्वामी कहते हैंद्वेषानुरागबुद्धिर्गुणदोषकृता करोति खलु पापम् । तद्विपरीता पुण्यं तदुभयरहिता तयोर्मोक्षम् ॥ १८१ ॥ भावार्थ - रत्नत्रयादि गुणोंमें द्वेष व मिथ्यात्वादि दोषोंमें की बुद्धि निश्चयसे पापबंध करती हैं। तथा इससे विपरीत गुणोंमें राग व दोपोंसे द्वेषकी बुद्धि पुण्य बंध करती है तथा गुणदोषों में रागद्वेषरहित वीतराग बुद्धि पाप पुण्यसे नीवको मुक्त करती है ।
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तात्प यह है कि रागद्वेष मोहको ही बंघका कारण जानकर इनहीके दूर करनेके प्रयोजनसे शुद्धोपयोगमयः स्वसंवेदन ज्ञान रूप स्वानुभवका निरन्तर अभ्यास करना योग्य है ।