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३५२ ] श्रीभवचनसार भाषाटीका। चिदानन्दमई एक स्वभाव अलग है उसका किसी के साथ मोह नहीं है यह अभिप्राय है।
भावार्थ-इस गाथामें भी भाचार्यने शास्त्र पठन और भेद • ज्ञानकी प्रेरणा की है। जो मार्ग या धर्म या उपाय संसारसे उद्धार होनेका श्री जिनेन्द्रोंने बताया है वही मिनवाणी में ऋपियोंफे द्वारा दर्शाया गया है । इसलिये जिन आगमका भले प्रकार अभ्यास करके लोक जिन छः द्रव्योंका समुदाय है उन छहों द्रव्योंको भले प्रकार उनके सामान्य विशेष गुणों के द्वारा जानना चाहिये । उन द्रव्योंके गुण पर्यायोंको अलग अलग समझ लेना चाहिये । यद्यपि अनंत नीव, अनन्त पुदल, असंख्यात कालाणु, एक धर्मास्तिकाय, एक अधर्मास्तिकाय तथा एक माकाशास्तिकाय परस्पर एक क्षेत्र रहते हुए इस तरह मिल रहे हैं जैसे एक घरमें यदि अनेक दीपक जलाए जाय तो उन सबका प्रकाश सब मिल जाता है तथापि जैसे प्रत्येक दीपकका प्रकाश मिन्नर है, क्योंकि यदि एक दीपकको वहांसे उठा ले जावे तो उसीका प्रकाश उसके साथ अलग होकर चला जायगा, इसी तरह हरएक द्रव्य अपनी अपनी सत्ताको भिन्न २ रखता है कोईकी सत्ता कभी भी किसी अन्य द्रव्यकी सत्तासे मिल नहीं सक्ती ऐसा जानकर अपने जीव द्रव्यको सबसे अलग ध्यानमें लेना चाहिये तथा उसका जो कुछ निन स्वभाव है उत्तीपर लक्ष्य देना चाहिये। जीवका निज स्वभाव शुद्ध नलकी तरह निभल ज्ञाता दृष्टा वीतराग और .
आनन्द मई है वही मैं हूं ऐसा अनुभव करना चाहिये । मेरा . -- सम्बन्ध या मोह किसी भी अन्य जीव व सर्व अचेतन द्रव्योंसे .