________________
श्रीभवचनसार आपाटीका ६६३. नहीं है इसीको . भेवज्ञान कहते हैं । इस भेदज्ञानके द्वारा नंब आत्मानुभवका अभ्यास किया जाता है तब अवश्य मोहकी अंथी टूट जाती है और यह मात्मा परम निर्मोही दीलगगी तथा शुद्ध होनाता है। ना भेद ज्ञान होनाता है तब ही सम्यक्त भाव प्रगट होजाता है और दर्शन मोहनीय उपशम या क्षय हो जाती है फिर पायक उदयनित राग द्वेषका अंत पुनः २ आत्मभावना या साम्रभाव या शुद्धोपयोगके प्रतापसे हो जाता है। तब यह आत्मा पूर्ण वीसरागी हो जाता है।
ऐसी ही भावनाका उपदेश समयसारनी में भी भाचार्य महारामने किया हैअहमिको व्वल सुद्धोय णिममो णाणसणसमग्यो । सम्हि दिदो सचिसो सच्चे एरे खयं णेमि ॥.७८ ।।
भाव यह है कि मैं एक अकेला निश्चयसे शुद्ध हूं , ज्ञानदर्शगसे पूर्ण न किसीसे भी ममत्व नहीं है। इसी अपने स्वभावमें ठहरा हुआ, उसीमें लीन हुआ मैं इन सर्व मोहादिका क्षय करता हूं।
श्री आत्मानुशासनमें श्री गुणभद्राचार्यजीने कहा है:ज्ञानस्वभावः स्यादात्मा स्वभाव चालिरच्युतिः । तस्मादच्युतिमाकाक्षन् भावयेत्र ज्ञानभावनाम् ॥ १७४ ।। रागद्वेपछताभ्यां जन्तोन्धः प्रवृत्यवृत्तिभ्याम् । सत्यज्ञानकृताभ्यां ताभ्यामवेक्ष्यते मोक्षः ॥ १८० ॥ मोहवीजाति पौ पीनान पूलांकुराविव । तस्माज ज्ञानाग्निना शाही देतो निर्दिधिक्षुणा ॥ १८ ॥