________________
श्रीप्रवचनसार: भाषाटीका: ।
१८९
अन्वय सहित विशेषार्थ - (जो ) जो कोई आत्मा (ani) एक समय में (तकालिके) तीन कालकी पर्यायों में परिणमन करनेवाले ( तिहुवणत्ये) तीन लोक में रहनेवाले (अत्थे पदार्थोंको( ण विजानदि ) नहीं जानता है । (तस्ल ) उस आत्माका ज्ञान (सपज्जयं) अनन्त पर्याय सहित ( एकं दव्वम्) एक द्रव्यको (वा). भी (जादु) जाननेके लिये ( ण सक्क) नहीं समर्थ होता है ।..
भाव यह है कि आकाशद्रव्य : एक है, धर्मद्रव्य एक है,
है और लोकाकाशके प्रदेशोंके प्रमाण असं उससे अनन्त गुणे नीव द्रव्य हैं, उससे,
नीच द्रव्यमें
नोकर्म वर्ग-
r
"
तथा अधर्म द्रव्य एक ख्यात काल द्रव्य हैं, भी अनन्त गुणे पुद्गल द्रव्य हैं, क्योंकि एक एक अनंत कर्म, वर्गणाओंका सम्बन्ध है वैसे ही अनंत णाओंका सम्बन्ध है । वैसे ही इन सर्व द्रव्योंमें प्रत्येक द्रव्यकी अनन्त पर्याय होती हैं । यह सर्व ज्ञेय - जानने योग्य है. और इनमें एक कोई भी विशेष नीव द्रव्य, ज्ञाता - जाननेवाला है ! ऐसा ही वस्तुका स्वभाव है । यहां जैसे अग्नि सर्व जलाने योग्य surat जलाती हुई · सर्व जलाने योग्य कारणके होते हुए सर्ब ईघनके आकारकी पर्याय में परिणमन करते हुए. सर्व मई एक अनि स्वरुप होजाती है अर्थात् वह अग्नि उष्णतामै परिणत तृण व पत्त मादिके आकार अपने स्वभावको परिणमाती है । वैसे यह आत्मा सर्व ज्ञेयोंको जानता हुआ सर्व ज्ञेयोंके कारण के होते हुए सर्वज्ञेयाकारकी पर्यायमें परिणमन करते हुए सर्व मई एक अखंडज्ञान रूप अपने ही आत्माको परिणमता है अर्थात सर्वको जानता है । और जैसे वही अनि पूर्वमें कहे हुए ईएनको नहीं जलाती हुई
r
..
1
.