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१४] श्रीप्रवचनसार भापाटीका । क्रियाओंके द्वारा क्रमसे नहीं जानते हैं किन्तु एक साथ एक समयमें सबको जान लेते हैं। ___ अन्वय सहित विशेषा:-(खलु) वास्तवमें (गाणे) अनन्त पदार्थों को जानने में समर्थ केवलज्ञानको (परिणमदो) परिगमन करते हुए केवळी अरहंत भगवानके (सम्वदनपजाया) सर्व द्रव्य और उनकी तीनकालवर्ती सर्व पर्याय (पच्चरखा) प्रत्यक्ष हो माती हैं। (सः) वह केवली भगवान (ते) उन सर्व द्रव्य पर्यायोंको ( ओमाहपुजाई किरिया) अवग्रह पूर्वक क्रियाओंके द्वारा (णेव विभाणदि) नहीं जानते हैं किन्तु युगपत जानते हैं ऐसा अर्थ है। इसका विस्तार यह है कि आदि और अन्त रहित, बिना किसी उपादान कारणके सत्ता रखनेवाले तथा चैतन्य और आनन्दमई स्वभावके धारी अपने शुद्ध आत्माको उपादेय अर्थात् गृहण योग्य समझकर केवलज्ञानकी उत्पत्तिका वनभूत जिसको आगमकी भाषासे शुक्लब्यान कहते हैं ऐसे रागादि विकझोंके जालसे रहित स्वसंवेदनज्ञानके द्वारा जब यह आत्मा परिणमन करता है तब स्वसंवेदन ज्ञानके फल स्वरूप केवलज्ञानमई ज्ञानाकारमें परिणमन करनेवाले केवली भगवानके उसी ही क्षणमें जा केवलज्ञान पैदा होता है तब क्रम क्रमसे जाननेवाले मतिज्ञा'नादि क्षयोपशमिक ज्ञानके अभावसे विना कमके एक माथ सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, माव सहित सर्व द्रव्य, गुण और पर्याय प्रत्यक्ष प्रतिभासमान होनाते हैं ऐसा अभिप्राय है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने केवलज्ञानकी महिमा बताई हैं। अभिपाय यह है कि महनज्ञान आत्माका स्वभाव है।