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श्रीमवचनसार भाषाटीकां। [२२३ क्रमवर्ती होता है। ऐसा आत्माको स्वाभाविक ज्ञान नहीं है इसलिये इन्द्रिय और मनसे पैदा होनेवाले ज्ञानको अपने निज आत्माका शुद्ध स्वभाव न मानकर उस ज्ञानको त्यागने योग्य जानकर और प्रत्यक्ष शुद्ध स्वाभाविक केवलज्ञानको उपादेय रूप मानकर उसकी प्रगटता के लिये स्वसंवेदन ज्ञान रूप स्वात्मानुभव अर्थात् शुंदोपयोगमई साम्यभावका अभ्यास करना चाहिये । शुद्ध निश्चय नयके द्वारा भेदज्ञान पूर्वक अपने शुद्ध स्वभावको पुद्गलादि द्रव्योंसे भिन्न जानकर उसी से शृद्धा रूप रुचि ठानकर उसीके स्वाद लेनेमें उपयोग रूप परिणतिको रमाना चाहिये यह स्वानुभव
आत्माके कर्ममलको झाटनेवाला है तथा मात्मानंदको प्रगटानेवाला है और यही केवलज्ञानी होने का मार्ग है ॥५७॥
. उत्थानिका-भागे फिर भी अन्य प्रकारसे प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञानका लक्षण कहते हैं
परदो विषणाण, तं तु परोवत्ति मणिदमत्येसु। जादवले जाद, हवादाहिनीरेण पचक्ख ॥१८॥
यत्परतो विज्ञान तनु परोसनिति भणितमर्थेषु । यदि फेवलेन ज्ञाः भवति हि जीवेन प्रत्यक्षम् ॥५८॥ '
सामान्यार्थ-जो ज्ञान परकी सहायतासे ज्ञेय पदार्थों होता है उसको, परोक्ष कहा गया है । परन्तु जो मात्र केवल मीवके द्वारा ही ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष है। . .
' अन्वय सहित विज्ञपार्थ-(अत्येतु), ज्ञेय पदार्थो (परदो ) दूसरे के निमित्त या सहायतासे ( विषणाणां), जो