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२२४] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । . ज्ञान होता है (तंतु परोक्खत्ति मणिदं ) उस ज्ञानको तो परोक्ष है ऐसा कहते हैं तथा ( यदि केवलेण जीवेण णादं हि हवर्दि) जो केवल विना किसी सहायताके जीवके द्वारा निश्चयसे जाना जाता है, सो (पञ्चख) प्रत्यक्ष ज्ञान है। इसका विस्तार यह है कि इंद्रिय तथा मन सम्बन्धी जो ज्ञान है वह परके उपदेश, प्रकाश आदि बाहरी कारणों के निमित्तसे तथा ज्ञानावरणीय कमके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए अर्थको जाननेकी शक्तिरूप उपलब्धि
और अर्थको जाननेरूप संस्कारमई अंतरंग निमित्तसे पैदा होता है वह पराधीन होनेसे परोक्ष है ऐसा कहा जाता है । पतु जो ज्ञान पूर्वमें कहे हुए सर्व परद्रव्योंकी अपेक्षा न करके केवल शुद्धबुद्ध एक स्वभावधारी परमात्माके द्वारा उत्पन्न होता है वह अक्ष कहिये आत्मा उसीके द्वारा पैदा होता है इस कारण प्रत्यक्ष है ऐसा सुत्रका अभिप्राय है।
भावार्थ-इस गाथामें भी भगवान कंपकंदाचार्यने इंद्विय ज्ञानकी निर्वलता दिखाई है और यह बताया है कि इंद्रयज्ञान परोक्ष है इसलिये पराधीन है जब कि केवलज्ञान विलकुल प्रत्यक्ष है और स्वाधीन है आत्माका खभाव है। केवलज्ञानके प्रकाश जब अन्य किसी अंतरंग व बहिरंग निमित्त कारणकी ज. रूरत नहीं है व इंद्रियज्ञानमें बहुतसे अंतरंग बहिरंग कारणोंकी भावश्यक्ता है । भतरंग कारणोंमें प्रथम तो ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम इतना अाहिये कि जितनी इन्द्रियोंकी रचना शरीरमें बनी हुई है उन इंद्रियों के द्वारा जानने का काम किया जासके ! दूसरे जिस इंद्रिय या मनसे मानना है उस ओर आत्माके उपयोगकी