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... श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। २२६ amminimiminin परिणति जानी चाहिये । यदि उपयोग मूर्छित है या किसी एक वस्तुमें लवलीन है तो दूसरी इंद्रियों द्वारा मानने का काम नहीं करसक्ता । एक मनुष्य किसी वस्तुको देखनेमें उपयुक्त होता हुआ कर्ण इंद्रिय द्वारा मुननेका काम उस समयतक नहीं करसक्ता जबतक उपयोग चक्षु इंद्रियसे हटकर कर्ण इंद्रियकी तरफ न आवे । तीसरे बहुतसे विषयोंके जानने में पूर्वका स्मरण या संस्कार भी पावश्यक होता है । यदि कभी देखी, सुनी व अनुभव की हुई वस्तु न हो तो हम इंद्रियोंसे ग्रहण करते हुए भी उसका नाम तथा गुण नहीं समझ सकेंगे। इसी तरह बातसे बहिरङ्ग कारण चाहिये जसे इंद्रियोंका अस्वस्थ व निद्रित व मूर्छित न होना, पदार्थों का सम्बन्ध, प्रकाशका होना आदि इत्यादि अनेक कारणोंका समूह मिलने पर ही इंद्रियजनित ज्ञान होता है । इसी तरह शास्त्रज्ञान भी पराधीन है। श्रुतज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम तथा उपयोगका सन्मुख होना अंतरंग कारण, और शास्त्र, स्थान, प्रकाश, अध्यापक आदि बहिरंग कारण चाहिये । यद्यपि अवधि मनःपर्यय ज्ञान साक्षात् इंद्रिय तथा मन द्वारा नहीं होते हैं. तथापि ये भी स्वाभाविक ज्ञान नहीं हैं। इनमें भी कुछ पराधोनताएं हैं। जिनका मितना अवधि ज्ञानावरणीय तथा मनःपर्यय ज्ञानावरणीयका क्षयोपशम होता है उतना ज्ञान तम होता है जब उपयोग किसी विशेष पदार्थकी तरफ इन दोनों ज्ञानोंकी शक्तिसे . सन्मुख होता है। ____सब तरह स्वाधीन आत्माका स्वाभाविक एक ज्ञान केवल ज्ञान है । इसलिये यही उपादेय है, और इसी ज्ञानकी प्राप्तिके ..